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( १७८ ) ओर झुक जाता है। इसके अतिरिक्त सदाचारियों के निकट वसने से उपद्रवों का भय नहीं रहता । जहां कदाचारी पुरुषों के स्थान हैं, चाहे वे अतिगुप्त हैं वा अतिप्रगट, वे सद् गृहस्थ के लिये वर्जने योग्य हैं। एवं जिस स्थान में गमनागमन के अनेक मार्ग हों वह स्थान उपद्रवों से प्रायः चच नहीं सकता। अतएव सामान्य गृहस्थधर्म पालन करने वाले पुरुप को योग्य है कि-वहे पहले क्षेत्रशुद्धि अवश्य करे। इसके साथ साथ उसको उचित है कि वह अपनी शक्ति के अनुसार ही वेप धारण करे । कारण कि-शक्ति के अनुसार जो वेष होता है वह जंगत् में प्रायः उपहास को पात्र नहीं होता। शक्ति के विपरीत वेष का धारण करना संभ्य सृष्टि में अवश्यमेव उपहास का कारण वन जायेगा। इसीलिये सूत्रकार कहते हैं कि
"तथा श्रायोचितो व्यय इति ___ लाभ के अनुसार या लाभ से कुछ न्यून व्यय करने वाला पुरुप दुःखों से पीड़ित नहीं होता, किन्तु जिस पुरुप को अपनी वृद्धि और हानि का पूर्ण तया बोध नही है, उसका संसार में यश के साथ जीवन व्यतीत करना कठिन हो जायेगा । अतएव यावंन्मात्र अपने पास द्रव्य हो वा यावन्मात्र प्रतिदिन व्यापारादि में धन की वृद्धि होती प्रतीत होती हो, उस से कम ही खर्च करना चाहिए: ताकि पीछे दुःखी न होना पड़े। इस कथन का यह प्राशय नहीं है कि-अत्यन्त कृपणता (कंजूसी) की जाए. प्रत्युत इसका अभिप्राय यह है कि मितव्ययी होना चाहिए।
"तथा प्रसिद्धदेशाचारपालनमिति
जो निंदा से रहित देशाचार सुप्रसिद्ध होरहा हो, उसके पालन करने से किसी भी प्रकार की निंदा नहीं हो सकती। इस लिये अनिन्द्य देशाचार के पालन करने वाला पुरुप दक्ष और बुद्धिमान् तथा स्वदेश-रक्षक कहा जाता है। अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि-विदेशी वेपादि आचरण धारण करने चाहिएं अथवा नहीं ? इस के उत्तर में यही कहा जा सकता है किजिन आत्माओं के मन में स्वदेशाभिमान वा गौरव विद्यमान है वे विपत्ति काल उपस्थित हुए विना स्वदेशाचार का उल्लंघन कदापि नहीं करते, किन्तु जो आत्माएँ स्वदेश के गौरव से अपरिचित हैं. वे ही मनमाने काम करते हैं । क्या आपने मन में कभी यह भी विचार किया है कि-जव विदेशी लोग हमारे देश के वेपादि को धारण नहीं करते तो भला हमें परिवर्तन करने की क्या आवश्यकता है ? जिन विदेशी लोगों ने हमारे देश के वेपादि प्राचार को धारंण नहीं किया क्या उनका निवास हमारे देश में नही हो सकता? • जब उनको इतना अभिमान है तो हम को भी स्वदेश का गौरव रखना चाहिए।