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अतएव सिद्ध हुआ कि-सम्यग् श्रत का अध्ययन करना श्रतधर्म कहा जाता है। इस धर्म का विस्तार पूर्वक कथन इस लिये नहीं किया गया है कि सब सम्यग् शास्त्र इसी विषय के भरे हुए हैं । सो उन शास्त्रों का अध्ययन करना ही सम्यग् श्रतधर्म है ।
चारित्रधर्म-जिस धर्म के द्वारा कर्मों का उपचय दूर हो जाए, उसी को चारित्रधर्म कहते है । क्योंकि-" ज्ञानक्रियाभ्या मोक्ष " ज्ञान और क्रिया के द्वारा ही मोक्ष पद उपलब्ध हो सकता है । इस कथन से यह स्वतः ही सिद्ध है कि केवल ज्ञान द्वारा मोक्ष उपलब्ध नहीं होता और नाहीं केवल क्रिया द्वारा मोक्षपद प्राप्त हो सकता है, किन्तु जब ज्ञानपूर्वक क्रियाएँ की जायँगी, तवही आत्मा निर्वाण पद की प्राप्ति कर सकेगा।
इस प्रकार जब सम्यग् शान होगया तव फिर सम्यग् चारित्र के धारण करने की आवश्यकता होती है। श्री भगवान् ने ठाणांग सूत्रस्थान २ उद्देश में प्रतिपादन किया है कि
चरित्तधम्मे दुविहे पं० त०-आगारचरित्तधम्मे अणगार-चरिचधम्मे ।
वृत्ति चरितेत्यादि-आगारं-गृहं तद्योगादागाराः-गृहिणस्तेषां यश्चरित्रधर्मः सम्यक्त्वमूलाणुव्रतादिपालनरूपः स तथा एवमितरोऽपि नवरमा गारं नास्ति येषां ते अना गाराः साधवः इति ॥
भावार्थ-चरित्रधर्म दो प्रकार का है, जैसेकि-गृहस्थों का चरित्र और मुनियों का चरित्र । सो मुनियों के चरित्रधर्म का स्वरूप तो पूर्व संक्षेप से वर्णन कर चुके हैं, परन्तु गृहस्थों का जो चरित्रधर्म है उसका संक्षेप से इस स्थान पर वर्णन किया जाता है। क्योंकि धर्म से ही प्राणी का जीवन पवित्र हो सकता है । अव धर्मविन्दुप्रकरण से कुछ सूत्र देकर गृहस्थ धर्म का स्वरूपलिखा जाता है। तत्र च गृहस्थधर्मोऽपि द्विविध सामान्यतो विशेषश्चति ।
(धर्मविन्दु श्र१। सू० २।) भावार्थ-गृहस्थ धर्म दो प्रकार से वर्णन किया गया है, जैसेकि-एक सामान्य गृहस्थधर्म और दूसरा विशेष गृहस्थधर्म । अब शास्त्रकार सामान्यधर्म के विषय में कहते हैं। तत्र सामान्यतो गृहस्थधर्म कुलक्रमागतमनिंद्यं विनवाद्यपेक्षया न्यायतो ऽनुष्ठानमिति ।
(धर्म० अ० १ । सू०३) भावार्थ-कुलपरम्परा से जो अनिंदनीय और न्याययुक्त आचरण आ रहा हो तथा न्याय पूर्वक ही विभवादि उत्पन्न किए गए हैं, उन्हें सामान्यधर्म कहते है । गृहस्थ लोगों का यह सब से बढ़कर सामान्य धर्म है कि वे पवित्र कुलाचार