________________
( १७० ) पड़ती । जैसेकि-गणधर्म वा राष्ट्रीयधर्म की व्याख्या सहस्रों श्लोकों में की जासकती। है पुरुषों की ७२ कलाएँ और स्त्रियों की ६४ कलाएँ तथा जो १०० प्रकार के शिल्प कर्म हैं वे सव राष्ट्रीय शिक्षा में ही लिये जासकते हैं। शिक्षा पद्धति का क्रम भी प्रशास्तृस्थविरों द्वारा नियत किया हुआ होता है, परंच वे क्रम देशकालानुसार ही निर्माण किये जाते हैं अतएव उक्त विषय का इस स्थल पर केवल दिग्दर्शन ही कराया गया है न कि विस्तार । स्मृति रहे ये सव लौकिक धर्म और लौकिक मार्ग को ही ठीक कर सकते हैं, नतु परलोक को। परन्तु अव--केवल उन दो धर्मों का वर्णन किया जाता है, जिन के धारण वा पालन करने से आत्मा अपने जीवन को आदर्श रूप बनाता हुआ सुगति का अधिकारी वन जाता है। इतना ही नहीं किन्तु अनेक भव्य प्राणियों को सुगति के मार्ग पर आरूढ करके यश का भागी भी बनता है। क्योंकि-यावन्मात्र संसारी पदार्थ हैं वे सव क्षण विनश्वर है। अतः उनका क्षण २ में पर्याय परिवर्तन होता रहता है, पदार्थों का जो पूर्व क्षण में पर्याय होता है वह उत्तर क्षण में देखने में नहीं आता है, सो जव पदार्थों की यह गति है तो उन में कौन ऐसा बुद्धिमान् है, जो अत्यन्त मूर्च्छित होकर इस पवित्र जीवन को व्यर्थ खो देवे? इस लिये वे भव्य प्रात्माएँ जिनका अव कथन किया जायगा उन दोनों धर्मों का अवलम्वन करते हैं । जैसेकि
सुयधम्मे-श्रुतधर्म के द्वारा प्राणी जीव अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संचर, वंध और मोक्ष के स्वरूप को भली भांति जान सकता है । वास्तव में धर्म शब्द की व्युत्पत्ति भी यही है, जिसके द्वारा दुर्गति में पतित होते हुए जीव सुग ति में प्रविष्ट हो सकें। श्रुतधर्म की वृत्ति करने वाले लिखते है कि-"श्रुतमेव
आचारादिकं दुर्गतिं प्रपतज्जीवधारणात् धर्म. श्रुतधर्म' यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि-पदार्थों के स्वरूप को भली भांति जानकर ही आत्मा को हेय (त्यागने योग्य ) ज्ञेय ( जानने योग्य ) तथा उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) पदाथों का बोध होसकेगा। इस लिये सर्व धर्मों से बढ़कर श्रुतधर्म ही माना गया है। इसी के आधार से अनेक भव्य प्राणी श्रात्म-कल्याण कर सकते हैं । यावन्मात्र पुस्तकें उपलब्ध होती है, वे सर्व श्रुतज्ञान के ही माहात्म्य को प्रकट करती हैं या यो कहिये कि वे सव पुस्तकें श्रतज्ञान ही हैं। क्योंकि-वेश्रतज्ञान के प्राथमिक कारणीभूत हैं। अनुयोगद्वारसूत्र में लिखा है कि-"दबसुयंपत्तपोत्थयलिहियं' अर्थात्-द्रव्य, श्रुतपत्र और पुस्तक पर लिखा हुआ होता है, सो उसको पढ़ते ही उपयोग पूर्वक होने से वे ही भाव श्रत होजाते हैं । इस कथन से यह भी सिद्ध होजाता है कि प्रत्येक व्यक्ति श्रतधर्म की प्राप्ति के लिये यथावसर स्वाध्याय करने का अवश्यमेव अभ्यास करें, यदि स्वाध्याय न कर सकता हो