SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मांस-भक्षण का विधान करदिया है । इसीलिये वे स्मृतियां आधुनिक समय में विचारशील व्यक्तियों के सम्मुख उपहास का पात्र वनरही हैं। परन्तु जैनकलकरों के नियमों में यह वात नहीं देखी जाती। साथही जैन-शास्त्रकारों ने यह भी कथन कर दिया है कि देशकालानुसार धार्मिक अंग को ध्यान में रखते हुए नियम निर्माण कर लेने चाहिएं। जिस प्रकार राष्ट्रीय संघधर्म-प्रचार देश का अभ्युदय करने वाला होता है, ठीक उसी प्रकार धर्म पक्ष में श्रीसंघ अपने पवित्र नियमों से श्रीसंघ का अभ्युदय करने वाला होता है। क्योंकि-वृत्तिकार लिखते हैं कि-"आर्हताना वा गणसमुदाय रूपश्चतुर्वर्णो वा संघस्तद्धर्मः तत्समाचार "इसका भावार्थ यह है कि-श्रीजिनेन्द्र भगवान्ने चार प्रकार का संघवर्णन किया है जैसेकि-साधु, साध्वी,श्रावक ओर श्राविका । इन्हीं चारों के समूह का नाम श्रीसंघ है । सो जव चतुर्विध संघ के स्थविर एकत्र होकर संघ के अभ्युदय के नियम निर्माण करें और उन्हीं नियमों के आधार पर श्रीसंघ अपने शान दर्शन और चारित्र की वृद्धि करता रहे,उसी को संघधर्म कहते हैं। श्रीसंघ का अपमान करने वाला व्यक्ति दुर्लभवोधि, कर्म की उपार्जना करता है। जिस प्रकार दुर्लभवोधिकर्म की उपार्जना की जाती है, ठीक उसी प्रकार श्रीसंघ की स्तुति करने वाला व्यक्ति-सुलभवोधिकर्म की उपार्जना करता है जिसके माहात्म्य से फिर वह जिस योनि में जायेगा उसी में सुलभता से उसे धर्म प्राप्ति हो जायगी । अतएव धर्मप्राप्ति और बोधि वीज की इच्छा हो तो श्रीसंघ का अविनय कदापि नहीं करना चाहिए । अपितु श्रीसंघ की आज्ञा पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का मुख्य कर्तव्य होना चाहिए । विचार कर देखा जाय तो यह क्या ही सुंदर विधान है कि-साधुगण, मुख्य २ स्थविर, आर्यायें, गण की मुख्य २ प्रवर्तनिकायें, श्रावक, गणके मुख्य २ स्थविर, श्रावक इसी प्रकार श्राविकायें, गणकी मुख्य २ स्थविरा और श्राविका किसी एक मुख्य स्थान पर एकत्र होकर धर्माभ्युदय के मार्गों का अन्वेषण करें उसी के अनुसार प्रवृत्ति करायें, इसी को शास्त्रकार संघधर्म कहते हैं । नंदीसूत्र के प्रारम्भ की कतिपय गाथाओं में श्रीसंघ की उपमा द्वारा स्तुति की गई है, जिस में श्रीसंघको चन्द्रमा और सूर्य तो कुछ दोष नहीं है। अन्यथा हिंसा न करे । विना प्राणियों की हिंसा किये मांस कहीं उत्पन्न नहीं होता । प्राणियों की हिंसा भी स्वर्ग की देने वाली है। इस कारण याग यज्ञ में जो प्राणियों की हिंसा होती है वह हिसा नहीं है। हिसा किये विना स्वर्ग नहीं मिल सकता, ब्राह्मण या क्षत्रिय अभ्यागत घर में आये हों तो उनके लिये बड़ा वैल या बड़ा बकरा पकावे, इस प्रकार आतिथ्य करने का विधान लिखा है।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy