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अथ तृतीया कलिका। इसके पूर्व देवगुरु का खरूप किञ्चिन्मात्र प्रतिपादन किया गया है किन्तु अब धर्म के विषय में भी किश्चिन्मात्र कहना उचित है। क्योंकि-देव का प्रतिपादन कियाहुत्रा ही तात्विक रूप धर्म होता है, उसी की सम्यक्तया श्राराधना करने से श्रात्मा गुरु पद को प्राप्त कर निर्वाण पद पाता है । अतएव प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है कि वह आत्म-कल्याण करने के लिए देव-गुरु और धर्म की सम्यग् भावों से परीक्षा करे । क्योंकि-जो सांसारिक पदार्थ ग्राह्य होता है, सर्व प्रकार से पूर्व में उसी की परीक्षा की जाती है। परन्तु जब आस्तिक वन कर परलोक की सम्यक्तयो आराधना करनी है तो उक्त पदार्थों की भी सम्यक्तया परीक्षा अवश्यमेव करनी चाहिए। इस समय धर्म के नाम से यावन्मात्र मत सुप्रसिद्ध होरहे हैं, प्रायः वे सवसम्यग् जान से रहित होकर केवल पारस्परिक विवाद,जय, पराजय और पक्षापात में निमग्न हो रहे हैं। जिनके कारण बहुतसीभद्र श्रात्माएँ धर्म से पराङ्मुख होगई हैं, और शंका सागर में गोते खाते है। इसका मूल कारण केवल इतना ही है किलोगों ने केवल धर्म शब्द का नाम ही सुना है, लेकिन उसके भेद तथा स्थानों को नही समझा है । इसीलिये परस्पर विवाद और जय पराजय का अखाड़ा खुला रहता है, जिसमें प्रतिदिन मल्लयुद्ध के भावों को लेकर प्रत्येक व्यक्ति उक्त अखाड़े में उतरती है । उनकी ऐसी अयोग्य क्रीड़ा को देख कर दर्शक जन उपहास की तालियां बजाते हैं। यही कारण है कि-धर्म और देशोन्नति अधोगति में गमन कर रहे हैं। इसमें कोई भी सन्देह नहीं है कि-वाचालता की ही अत्यन्त उन्नति इस युग में हो रही है। परन्तु जैन-शास्त्रकारों ने धर्म शब्द की व्याख्या इस नीति से की है कि उसमें किसी को भी विवाद करने का नुक्श उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि जव धर्म शब्द के मर्म को जान लिया जाता है तो स्वयं पारस्परिक विवाद तथा वैमनस्य भी अन्तःकरण से उठ जाता है । प्रायः देखा जाता है कि-बहुत से अनभिन वा हठग्राही आत्माएँ केवल धृञ् धारणे धातु के अर्थ को लेकर मान बैठे हैं कि-जिसने जिस वस्तु को धारण किया है वही उसका धर्म है, ऐसी बुद्धि रखने वाले सज्जनों के मत से कोई भी संसार में अधर्म नहीं है, क्योंकि-जो कुछ उन्हों ने धारण किया है, उनके विचारानुकूल तोवह धर्म ही है। अब बतलाना चाहिए कि-अधर्म क्या चीज है ? और धर्म क्या चीज है ? उनके मतानुकूल तो एक व्याध (शिकारी) जो जीवों को मारता फिरता है, उसकी पाशविक क्रिया भी एक धर्म है, एवं चोर चोरी कर रहा है, वह भीधर्म है, अन्यायी अन्याय कर रहा है,वह भी धर्म है, व्यभिचारी व्यभिचार कर रहा है, वह