SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १४० ) दंशनं भक्षणमित्यर्थः-तत्प्रधाना मशका दंशमशकाः एते च चूका मत्कुणमत् कोटक मक्षिकादीनामुपलनणमिति ५ तथा चेलानां-वस्त्राणां वहुधन नवीनावदात सप्रमाणाना सर्वेषां वाऽभावः अचलत्वमित्यर्थ:-:-अरति मनसोविकारः ७ स्त्री प्रतीता "चर्या" प्रामादिवनियत विहारित्वं 'नेषेधिकी" सोपवेतरा व स्वाध्याय भूमिः १० 'शत्र्या” मनोज्ञामनोज्ञवसतिः संस्तारको वा ११ "अनोशो" दुर्वचनं १२ वधायष्टवादिताडनं १३ "याचना' भिक्षणं तथाविधै प्रयोजने मार्गणं वा १४ अलाभ रोगो प्रतीतौ १६ तृणस्पर्श. संस्तारकाऽभाव तृणेषु शयानस्य 'जल्ल:" शरीर वस्त्र मल: १८ सत्कार पुरस्कारौ च वस्त्रादिपूजनाभ्युत्थानादि संपादनन सत्कारेण वा पुरस्करणसन्माननं सत्कार पुरस्कारः १६ ज्ञानं-सामान्यन मत्यादि क्वचिद् ज्ञानमिति श्रयते २० दर्शनं सम्बग्दर्शन, सहनं चाऽस्य क्रियावादिनां विचित्र मत श्रवणेऽपि निश्चलचित्ततया धारणं २१ 'प्रजा" स्वयं विमर्श पूर्वको वस्तुपरिछेदो मतिज्ञान विशेष भूत इति ॥ भावार्थ-सर्व प्रकार के कष्टों को सहन करना उसे परीपह कहते हैं अर्थात् अपनी गृहीत वृत्ति के अनुसार क्रियाएं पालन करते हुए कोई कष्ट उपस्थित हो जाए तो उसको सम्यक्तया सहन करे किन्तु वृत्ति से विचलित न हो इसके निम्नलिखितानुसार २२ भेद हैं: १ नुत्परीषह-भूखका सहन करना किन्तु क्षुधा के वशीभूत होकर सचित्तादि पदार्थों का कदापि आसेवन न करे। २ पिपासापरीषह-इसी प्रकार पिपासा का सहन करना किन्तु प्यास के वश होकर सचित्त जलादि को कदापि ग्रहण न करे। ३ शीतपरीपह-शीतादि अधिक पड़ जाने पर प्रमाण से अधिक वस्त्रादि आसेवन न करे और ना ही अग्नि का सेवन करे। ४ उष्णपरीषह-उणपरषिह से पराजित होकर स्नानादि की इच्छा कदापिन करे किन्तु गर्मी को सहन करे। ५ दशमशकपरीपह-यूका मत्कुण मत्कोटक मक्षिकादि से उत्पन्न हुए कष्ट को सहन करे । चतुरिन्द्रियादि जीवों में मंशकादि का दंश विशेप पीडाकारी होता है। अतएव उक्त जीवों से उत्पन्न हुए कष्ट को सहन करे। ६ अचेल परीषह-प्रमाणपूर्वक वस्त्र धारण करता हुआ विचरे। यदि वे वस्त्र पुरातन होगए होतो हर्ष और शोक न करे जैसेकि-मेरे यह वस्त्र पुराणे होगये हैं अव मुझे नवीनवस्त्र मिल जाएंगे । तथा इन वस्त्रोके फटजाने से अव मुझे वस्त्र कौन देगा अतः अव में अचल (वस्त्र रहित) हो जाऊंगा इत्यादि विचारों से हर्ष और शोक न करे। ७ अरतिपरीपह-यदि किसी कारण अरति (चिंता ) उत्पन्न हो गई हो तो मनको शिक्षा देकर चिंता दूर करे ।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy