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________________ ( १३२ ) ८ घ्राणेन्द्रिय निग्रह-घ्राणेन्द्रिय के दो विषय है जैसे कि-सुगंध और दुर्गन्ध। इन पर भी राग और द्वेप न करना चाहिए। रसनेन्द्रिय निग्रह-रसेन्द्रिय के भी पांच ही विषय हैं जैसेकि-कटक १ कपाय २ तिक्त ३ खट्टा ४ और मधुर ५। इन पांचों विषयों के दो भेद हैं यथा इष्ट और अनिष्ट । इन दोनों पर ही साधु राग और द्वेष न करे । १० स्पर्शोन्द्रय निग्रह-स्पर्शेन्द्रिय के आठ विषय हैं जैसेकि-गुरु १ लघु २ श्लक्ष्ण ३ खर ४ स्निग्ध ५ रुक्ष ६ शीत ७ उष्ण । इन आठों के फिर दो भेद किये जाते हैं जैसेकि-इष्ट और अनिष्ट। अतः इष्ट स्पर्शों पर राग और अनिष्टों पर द्वेष न करना चाहिए। ११ क्रोधविवेक-जहां तक वन पड़े क्रोध के भावों को उपशान्त करना चाहिए। यदि किसी कारण वे उदय आगए हों तो उन भावों को निष्फल कर देना चाहिए। १२ मानविवेक कोई भी निमित्त मिल जाने पर अहंकार न करना चाहिए जैसे इच्छानुकूल पदार्थों का लाभ हो जाने से अहंकार के भाव आजाते हैं १३ मायाविवेक-इसी प्रकार किसी भी कारण के मिल जाने पर छल न करना चाहिए। यदि छल करने के भाव उत्पन्न हो भी जावें तो उन्हें निष्फल कर देना चाहिए अर्थात् छल न करना चाहिए। १४ लोभविवेक-साधु किसी प्रकार का भी लोभन करे। यदि किसी कारण लोम का उदय होजाए तो उसे ज्ञान वैराग्य और संतोष द्वारा शान्त करना चाहिए । नाँ ही किसी पदार्थ पर मूञ्छित भाव उत्पन्न करने चाहिएं। १५. भाव सत्य-अन्तःकरण से श्राश्रवों की निवृत्ति करके मन में आत्मा को शुद्ध भावों से अनुप्रेक्षण करता हुआ यही आत्मा परमात्म संज्ञक वन जाता है अतः भावसत्य उसीका नाम है कि जिससे भावों में सत्य ही स्फुरणा उत्पन्न होती रहे। १६ करणसत्य-भावसत्य की सिद्धि के लिये करणसत्य की अत्यन्त आवश्यकता है क्योंकि-जव क्रिया सत्य होगी तब ही भावसत्य शुद्धरूप से ठहर सकता है जेसेकि-पहले तो षडावश्यक शुद्धरूप से पालन करने चाहिएं यथा १ सामायिक-सावध योगों की निवृत्तिरूप प्रथम आवश्यक सामायिक है। २ चतुर्विंशतिस्तव-द्वितीय श्रावश्यक के पाठ में २४ तीर्थंकरों की स्तुति वा अन्तःकरण की भावना के उद्गार कथन किये गए हैं। ३ वन्दनावश्यक-विधिपूर्वक गुरुदेव को वन्दना (स्तुति ) करना । इस
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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