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( १२६ ) भावार्थ-भगवान् ऋपभदेव और भगवान् महावीर स्वामी के ५ महाव्रतों की २५ भावनाएं कथन की गई हैं। महावतों की रक्षा के लिये जो अन्तःकरण से इस प्रकार के उद्गार होते हैं उन्हें भावनाएं कहते हैं जैसेकि प्रथम महावत की पांच भावनाएं निम्न प्रकार से कथन की गई हैं । भावनाओं द्वारा व्रतों की भली प्रकार से रक्षा हो सकती है।
१ ईर्यासमिति चलते समय भूमिको विना देखे गमन न करना चाहिए। कीटपतंगियादि त्रस तथा पृथ्वी, जल अग्नि, वायु और वनस्पति स्थावर जीवोंकी रक्षा करते हुए चलना चाहिए । साथही अहिंसा व्रतकी रक्षा के वास्ते किसी भी प्राणी की निंदा, हीलना और गर्हणा नहीं करनी चाहिए तथा ' जिस से किसी भी जीवको दुःख प्राप्त हो वह कार्य न करना चाहिए।
२ मनोसमिति-मन के द्वारा किसी जीव की हानिका विचार नहीं करना चाहिए। पतित, निर्दय, वध और बंध, परिक्लेष तथा भय और मृत्य के उत्पन्न करने वाले विचार मनमें कदापि उत्पन्न नहीं करने चाहिएं।
३ वागसमिति-किसी को हानि पहुंचाने वाले वचन का प्रयोग न करना चाहिए। कटुक वाणी से प्रायः बहुत से उपद्रव वा हिंसा होने की संभावना हुआ करती है।
४ाहारसमिति-संयम का निर्वाह शुद्ध निर्दोष भिक्षावृत्ति द्वारा करना चाहिए । साथही जो पात्र साफ और विस्तीर्ण हो उसमें देखकर श्राहार करना चाहिए । परन्तु आहार करते समय पदार्थों को देखकर समभाव रखने चाहिएं। शांत भावों से स्वाध्यायादि क्रिया करके गुरुकी श्राक्षा प्राप्त कर स्तोकमात्र आहार से शरीर रक्षा करनी चाहिए क्योंकि संयम की वृद्धि के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है।
५श्रादाननिक्षेपसमिति-पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक तथा वस्त्र पात्रादि जो संयम क्रिया के साधक उपकरण हैं उनको विना यत्न उठाना वा रखना नहीं चाहिए अन्यथा जीवहिंसा होनेकी संभावना होती है।
__ इस विधि से प्रथम महावत को पवित्र भावनाओं द्वारा पालन करना
चाहिए।
२ मृषावाद विरमण-झूट बोलेने से सर्वथा निवृत्ति करना दूसरा महाव्रत है। मारणांतिक कष्ट श्रानेपर भी मुख से असत्य कदापि न वोलना चाहिए।
आगे असत्य दो प्रकार से कथन किया गया है। द्रव्य और भाव । द्रव्य उसे कहते हैं जो व्यावहारिक कार्यों में वोला जाता है-भाव उसका नाम है जो पदार्थों के यथार्थ भाव को न समझकर केवल मिथ्याभाव के वश होकर अयथार्थ ही कह दिया जाता है । सो दोनों प्रकार के असत्य का मन, वचन