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( १२३ ) सम्यग्तया गच्छ की रक्षा करने से निर्वाणपद की निश्चय ही प्राप्ति कर लेते हैं। अतएव उक्त दोनों उपाधिधारियों को योग्य है कि वे अपने कर्तव्य को ठीक तौर पर पालन करें और अनेक भव्य आत्माओं को धर्म पथ में स्थापन करके कल्याण के भागी वने । सो गुरु पद में आचार्य और उपाध्याय का वर्णन किये जाने पर अव साधु विपय में कहा जाता है । यद्यपि साधु पद में आचार्य और उपाध्याय दोनों ही गर्भित हैं तथापि उपाधि के विशष होने से इनका पृथक् वर्णन किया गया है। परन्तु साधुपद के गुण सव में एक समान ही होते है ॥ __ सत्तावीसं अणगारगुणा पणत्ता तंजहा-पाणाइवायाो वेरमणं मुसाबायाओ वेरमणं अदिन्नादाणाओ वेरमणं मेहुणाओवेरमणं परिग्गहाओवेरमणं सोइंद्रियनिग्गहे चक्खिदिय निग्गहे पाणिदियनिग्गहे जिभिदिय निग्गहे फासिदिय निग्गहे कोहविवेगे माणविवेगे मायाविवेगे लोभाविवेगे भावसचे करणसचे जोगसच्चे खमा विरागया मणसमाहरणया वयसमाहरणया कायसमाहरणया णाणसंपएणया दंसण संपएणया चरित्त संपएणया वयेण अहियासणया मारणंतिय अहियासणया ।
समवायाग सूत्र स्थान २७ वॉ॥ टीका-सप्तविंशति स्थानमपि व्यक्तमेव, केवलं षद् सूत्राणि स्थितेरक्,ि तत्र अनगाराणां-साधूनां गुणाः चारित्र विशेष रूपाः अनगारगुणा. तत्र महाबतानि पञ्चन्द्रियनिग्रहाश्च पंच क्रोधादि विवेकाश्चत्वार सत्यानि त्रीणि तत्र भावंसत्यं शुद्धान्तरात्मना करणसत्यं यत्प्रतिलेखनाक्रियां यथोक्तां सम्यगुपयुक्तः कुरुते योगसत्यं-योगाना-मनः प्रभृतीनाम वितथत्वं १७ क्षमा अनभिव्यक्ल क्रोधमानस्वरूपस्यद्वेपसजितस्याप्रीतिमात्रस्याभावः अथवा क्रोध मानयोरुदय निरोधः क्रोधमान विवेकशब्दाभ्यां तदुदयप्राप्तयोस्तयोनिरोधः प्रागेवाभिहित इति न पुनरुक्तता । अप्रीतिः १८ विरागता अभिप्वङ्ग मात्रस्याभावः अथवा मायालोभयोरनुदयो माया लोभ विवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयोनिरोधः प्रागभिहित-इतीहापि न पुनरुक्ततेति १६ मनोवाकायानां समाहरणता पाठान्तरतः समन्याहरणता-अकुशलानां निरोधास्त्रयः २२ ज्ञानादिसंपन्नतास्तिस्त्रः २५ वेदनातिसहनता-शीतादि-अतिसहन २६ मारणांतिकातिसहनताकल्याण बुद्धया मारणांतिकोपसर्गसहनमिति २७ ॥ इति सप्तविंशतिगुणा भिक्षूणां कथिता वा प्रतिपादिताः ॥
भावार्थ-श्री भगवान्ने साधुके सत्ताईस गुण प्रतिपादन किये हैं ययोंकि-गुणों से ही साधुत्व होता है नतु चेप धारण करने से यद्यपि मनुष्यत्व