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हैं जैसेकि आठ संपदोंके चार २ भेद, सर्व भेद एकत्र करने से ३२ हुए और चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति के मिलाने से ३६ गुण होजाते हैं परन्तु मन्तब्य यह है कि-श्राचार्य समग्र गुणों से संयुक्त हो ताकि गण की सम्यग्तया रक्षा कर सके क्योंकि गुणों में एक स्वाभाविक शक्ति होती है जो अन्य व्यक्तियों को स्वयमेव आकर्पित करलेती है। जिसप्रकार गच्छमें श्राचार्य मुख्य माना जाता है ठीक उसी प्रकार द्वितीय अंकपर उपाध्याय का नाम है । गच्छ के मुनियोंको सुयोग्य वनाना नथा योग्यतापूर्वक उनको श्रुताध्ययन कराना यही उपाध्याय का मुख्य प्रयोजन है। क्योंकि-श्रुतपुरुपके ११ एकादशांग और १४ पूर्व अवयवांग हैं । उपाध्याय उन अंगों वा पूर्वोको श्राप पढ़े और परोपकारके लिये अन्य योग्य व्यक्तियों को पढ़ाए । यही मुख्य २५ गुण उपाध्याय जी के है । इसका मूल कारण यह है कि-स्थानांग सूत्र के द्वितीय स्थान में लिखा है कि-अनादि संसार चक्र से पार होने के लिए श्री भगवान् ने दो मार्ग बतलाए हैं अर्थात् दो स्थानों से जीव अनादि संसार चक्र से पार होजाते है जैसेकि"विजाए चेव चरित्तेण चैव" विद्या और चारित्र से। इस कथनकासारांश यह है किजबतक सद् चा आध्यात्मिक विद्या सम्यग्तया उपलब्ध नहीं होती तवतक धार्मिक विषयों में भी पूर्णतया निपुणता नहीं मिल सकती । धार्मिक विपयों मे निपुणता न होने पर फिर श्रात्मा और काँका जो परस्पर क्षीरनीरवत् सम्बन्ध होरहा है उसका बोध किस प्रकार होसकता है। यदि कर्म और आत्मा के विषय में अनभिमता है तो फिर उनके पृथक् २ करने के लिए यत्न किस प्रकार किया जायगा? अतएव प्रथम श्रुतविद्या के अध्ययन करने की अत्यन्त आवश्यकता है। जब श्रुताध्ययन भली प्रकार से होगया तो फिर उस श्रुत से निश्चित किये हुए कर्मके सम्बन्ध को प्रात्मा से पृथक् करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है सो जो क्रियाएं प्रात्मा से कर्मों को पृथक् करने के लिये धारण की जाती हैं, उन्हीं का नाम चारित्र है। इसीलिए शास्त्रकारने पहिले ही यह प्रतिपादन करदिया है कि-विद्या और चारित्र से श्रात्मा अनादि संसार चक्र से पार होजाते हैं । इस श्रुत के अध्ययन कराने के लिये उपाध्याय पद नियुक्त किया गया है।
उपाध्याय जी के २५ गुण कथन किए गए हैं जैसेकि-११ अंगशास्त्र और चतुर्दश १४ पूर्व । एवं श्रुतनान के २५ मुख्य शास्त्रों को श्राप पढ़े और अन्य योग्य व्यक्तियों को पढ़ाये जिससे श्रुतज्ञान द्वारा अनेक भव्य प्राणियों का कल्याण होसके । अव भव्य जीवों के प्रतिबोध के लिये पहले अंगशास्त्रों का किंचित् परिचय दिया जाता है ।