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________________ ८६ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन पृथक् पात्रों के द्वारा सातों व्यसनों के दुष्परिणामों से मानव को अवगत कराया गया है। यह काव्य सुष्ठु भावाभिव्यंजना, शैलीगत सौन्दर्य, छन्दालंकारों की भव्य योजना एवं महत् उद्देश्य की दृष्टि से सफल है। इस कृति के प्रणेता भारामल्ल सिंघई है। उन्होंने इसे विक्रम संवत् १८१४ में सिरजा है। निशि भोजन त्याग कथा यह कवि भारामल्ल की उन्नीसवीं शती की सरस कृति है। चौपई, सोरठा, मनहरण, गीता आदि छन्दों में रूपायित दो सौ चौबीस पद्यों की प्रस्तुत कृति अपने ढंग की एक ही है। कवि ने इसमें पद्मदत्त सेठ की कन्या कमलश्री के चारित्रिक विकास के माध्यम से निशि-भोजन-त्याग के तथ्य को बड़े अनूठेपन से पुष्ट किया है । काव्य के निष्कर्ष में कवि यही उद्घाटित करता है : निशि के व्रत का फल अधिकार । ऐसा सुनो सबै नर नार । यासे नरनारी सुन लेउ । निशि का भोजन सदा तजेउ ॥२११॥ निशि में भोजन करै जु कोइ । पशु सम है नर नारी सोइ। नरक पशू गति सो नर परें । जो निशि भोजन भक्षण करें ॥२१२॥ जो निशि त्याग करे नर नार । तिन को धन्य कहो अवतार । सोही स्वर्ग मुक्ति पद बरे । जो निशि भोजन त्यागें खरे ।।२१३।।' काव्य में रस, कुतूहल और सजीवता का सन्निवेश है। उसमें शैलीगत सौकुमार्य छलक रहा है। यह लघुकाय रचना भारामल्ल के श्रेष्ठ कृतित्व का निदर्शन है। १. मुंशी नाथूराम बुकसेलर कटनी मुड़बारा ने देशोपकारक प्रेस लखनऊ में पं० घासीराम त्रिपाठी के प्रबन्ध से मुद्रित कराई, सन् १९०६ ई० । २.. निशि भोजन कथा, पृष्ठ २७ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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