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________________ परिचय और वर्गीकरण (क) परिचय आलोच्यकाल में जैन कवियों द्वारा रचित मौलिक प्रबन्धकाव्यों के साथ-साथ अनूदित प्रबन्धकाव्य भी उपलब्ध होते हैं । इससे यह प्रतीत होता है कि उन्होंने मौलिक कृतियों के प्रणयन की ओर जितना ध्यान दिया है उतना या उससे कुछ कम ही अनूदित कृतियों के प्रणयन की ओर भी। यहाँ यह उल्लेख्य है कि इस काल की मौलिक रचनाओं में महाकाव्य और एकार्थकाव्यों की अपेक्षा खण्डकाव्यों का अधिक संख्या में प्रणयन हुआ है और अनूदित प्रबन्धकाव्यों में खण्डकाव्यों की अपेक्षा महाकाव्य एवं एकार्थकाव्यों का । मौलिक कृतियों में जहाँ पुराण, चरित, रास, कथा, वेलि, मंगल, ब्याह, चन्द्रिका, चौपई, कवित्त, छन्द-संख्या (शतअष्टोत्तरी, बत्तीसी, पच्चीसी) आदि अनेक नामान्त काव्य मिलते हैं वहां अनूदित कृतियों में पुराण, चरित, चौपई, कथा आदि नामान्त काव्य ही अधिक मिलते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सर्वाधिक महत्त्व तो मौलिक रचनाओं का ही है क्योंकि वे ही काव्य के अन्तरंग एवं बहिरंग, दोनों पक्षों के मूल्यांकन का अवसर देती हैं; किन्तु अनूदित रचनाएँ भी इसलिये उपेक्षणीय नहीं हैं क्योंकि भाषा-शैली के क्षेत्र में उनका भी यथोचित योगदान है । अस्तु, मौलिक प्रबन्धकाव्य (अठारहवीं शताब्दी) उन्नीसवीं शताब्दी की अपेक्षा अठारहवीं शताब्दी अधिकांश प्रबन्धकाव्यों के सृजन की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है । अधिकांश मौलिक प्रतिभाओं ने इसी शती में जन्म लिया। 'पार्श्वपुराण' महाकाव्य के रचयिता
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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