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________________ युग-मीमांसा की प्राणप्रतिष्ठा हेतु अनेक संगीतात्मक छन्दों का प्रयोग किया है। उनके मध्य स्थल-स्थल पर 'सवैया' छन्द का बहुलता से प्रयोग भी संगीत-सृष्टि की दृष्टि से ही हुआ प्रतीत होता है । यह छन्द अपने नाद-सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें संगीत की तरंगें उठती रहती हैं । समीक्ष्य प्रबन्धों में अनेक स्थलों पर जिस 'टेक' शैली के प्रयोग से और प्रत्येक पंक्ति या दो-चार पंक्तियों के आरम्भ, मध्य अथवा अन्त में अरी, हाँ, रे, तौ, सुन, रे लाल, लाल आदि सम्बोधनात्मक शब्दों की योजना से भी संगीतमयता ध्वनित होती है। __ कहना चाहिए कि इस युग में संगीत सम्राटों, राजा-महाराजाओं आदि के महलों और भवनों में ही गूंजने के लिए नहीं था; वह जनसाधारण के हृदय को भी रस-विभोर करने के लिए था। कवियों ने भी उसे काव्य में स्थान दिया । लोक-मानस को रस की अखण्ड धारा से सींचने, सार की बात को जन-हृदय पर अंकित करने और भाव के प्रभाव को अक्षुण्ण रखने के लिए काव्य में संगीत का पुट दिया जाना कम महत्त्वपूर्ण न था। १. (क) कंचनमय झारी रतननि जारी क्षीर समुद्र जल ले भरियं । सीतल हिय कारं चचित सारं ढारत अनुपम धार त्रयं ।। पूजत सुर राजं हरष समाज जिनवर चरण कमल जुगं । दुख निवारं सब सुख कारं दायक सिव पद गौरव परं ॥ -वर्द्धमान पुराण, सर्ग ११, पद्य १६६, पृष्ठ १६६ । (ख) कितेक सषान संग में, सुगंध लाय अंग में, गुमान की तरंग में, सुसार गीत गावते । कितेक नृत्य चाव सौं करें, सुहाव भाव सौं धरै, सुपाव दाव सौं करें, सुहाथ कौं फिरावते ।। कितेक सुवाम साथ लै, सुवीन आप हाथ लै, मृदंग सार वाथ लै, सुताल से बजावते । सुरंग रंग लाय के, अबीर कौं लगाय के, गुलाल को उड़ाइ के, प्रमोद कू बढ़ावते ॥ -जीवंधर चरित (नथमल विलाला), पद्य २४, पृष्ठ ४३ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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