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________________ युग-मीमांसा गाकर सुनाये जाते थे जिन्हें सुनकर जनता के हृदय में धार्मिक श्रद्धा और भक्ति के भाव जागृत होते थे ।" ५१ सारांश यह है कि इस युग में संगीत कला का चतुर्दिक विकास हुआ । उसका प्रसार राजप्रासाद से लेकर निर्धन की कुटिया तक हुआ । 'शास्त्रीय ' और 'सुगम' दोनों प्रकार के संगीत से समग्र भारत गूंज रहा था । श्रेष्ठ संगीतज्ञों के कंठ में तो संगीत था ही, विविध शैलियों के लोकगीतों, सगुणनिर्गुण भक्तों की वाणियों और कवियों की अनेक रचनाओं में असंख्य राग-रागिनियों पर आधारित देशी और 'ढालों' में भी संगीत की लहरें उठती थीं । आलोच्य प्रबन्धकाव्य और संगीत कला आलोच्य कृतियाँ तत्कालीन संगीत कला की प्रतिच्छाया से असम्पृक्ता नहीं हैं । कुछ प्रबन्ध रचनाएँ तो प्रायः पूर्णत: संगीतात्मक ही हैं और कुछ में स्थल-स्थल पर संगीत की स्वर लहरी का गुंजन है ।" यह निर्विवाद है कि श्वेताम्बर कवियों के काव्य में संगीत तत्त्व शीर्ष पर है । उनकी 'रास - चौपई' नामान्त अधिकांश रचनाओं में जितनी राग-रागिनियों, देशियों और ढालों का प्रयोग हुआ है और जिस सुन्दर विधि से संगीत को काव्य के साँचे में ढाला है, वह दुर्लभ है; किन्तु दिगम्बर कवियों के काव्य में भी १. डॉ० ईश्वरीप्रसाद : भारतवर्ष का नया इतिहास, पृष्ठ ४२६ । १. नेमिनाथ मंगल, राजुल मंगल, श्रेणिक चरित, नेमीश्वररास आदि । ३. राजुल पच्चीसी, चेतन कर्मचरित्र, पंचेन्द्रिय संवाद, शत अष्टोत्तरी, फूलमाल पच्चीसी आदि । ४. श्वेताम्बर कवियों का अधिकांश काव्य राजस्थानी भाषा में रचित है । उसमें प्रयुक्त ढालों में देशियों एवं गीतियों का 'अथ' से 'इति' तक प्रयोग बड़े आश्चर्य का विषय है । ये लोकगीत न हों, किन्तु लोकगीतों की प्रकृतावस्था के अत्यन्त समीप, गीतिकाव्य-तत्त्वों से युक्त, नव-नव रागों से सिक्त (क्रमश:)
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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