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________________ लक्ष्य-संधान उचित होगा क्योंकि उनकी संख्या भी काफी है। उनके प्रणेताओं का मुख्य लक्ष्य धर्मभावना का प्रचार और प्रसार करना रहा प्रतीत होता है। इसी हेतु उन्होंने प्राचीन प्रबन्धकाव्यों को तत्कालीन लोकभाषा- ब्रजभाषा में छन्दोबद्ध रूप में ढालने का प्रयास किया गया है। इस दिशा में विशेषकर संस्कृत के प्रबन्धों को अनुवाद रूप में प्रस्तुत किया गया है । संस्कृत के प्रबन्धकाव्यों को समझने की क्षमता साधारण पढ़े-लिखे लोगों में नहीं थी, अतः उन्हें अनुवाद द्वारा जन साधारण के निकट लाने का प्रश्न भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। इस कार्य के मूल में निज-पर हित की भावना ही प्रधान रही। साथ ही मूलकृतियों के भावों को सुरक्षित रखते हुए उन्हें रसात्मक रूप में सामने रखने का बराबर उद्देश्य रहा । इस प्रकार 'जीवंधर चरित', 'जिनदत्त चरित', 'वरांग चरित', 'धर्म परीक्षा' श्रेणिक चरित', 'भद्रबाहु चरित, हरिवंश पुराण,' 'पाण्डव पुराण', आदि-आदि अनेक प्रबन्धकाव्यों को जन सामान्य की धरोहर बनाने का श्रेय उनके प्रणेताओं को है। निष्कर्ष निष्कर्ष यह है कि लक्ष्य-संधान की दृष्टि से आलोच्य कान्यों को विविध पक्षों में रखकर देखा जा सकता है । प्रत्येक कृतिकार का जैसे मल्लिनाथ मंदिर विष, रच्यो पुरान महान । अति प्रमोद रस रीति सों, धर्म बुद्धि उर आन ॥ -शान्तिनाथ पुराण, पद्य ४६५१, पृष्ठ १६० । भट्टारक श्री वर्धमान अति ही विसाल मति । कियो संस्कृत पाठ ताहि समझ न तुछमति ॥ ताही के अनुसार अरथ जो मन में आयो । निज पर हित सुविचार 'लाल' भाषा करि गायो॥ -वरांग चरित, पद्य ६६, पृष्ठ ८३ । ३. जिनदत्त चरित (बख्तावरमल), पद्य ११२, पृष्ठ १० ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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