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________________ लक्ष्य-संधान ३८३ जीवन-शोधन के उपायों का अन्वेषण करते हैं; पूर्व जन्मों में अगणित कष्ट सहते हुए आत्म-विकास के लिए सतत प्रयास करते हैं; सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से युक्त जीवन व्यतीत करते हुए तीर्थकर भव (जन्म) में करुणा, क्षमा, अहिंसा, त्याग, तप आदि को धारण कर केवलज्ञान प्राप्त करते और धर्मोपदेश देते हैं तथा अन्त में निर्वाण प्राप्त करते हैं। ___ कहना चाहिए कि उक्त प्रबन्धों में कवियों का उद्देश्य तीर्थंकर चरित्रों के अतिशय को प्रकट करना है; उनके चरित्र का उत्कर्ष दिखलाकर और उसमें अलौकिकताओं का समावेश कर मानव को उनकी भक्ति के लिए प्रेरित करना है तथा उनके चरित्र को प्रेरणा का स्रोत बनाना है । उदाहरणार्थ पार्श्वनाथ के चरित्र को लिया जा सकता है । प्रारम्भ से ही उनका भाई उनका पक्का वैरी बन जाता है; अनेक जन्मों तक वह वैर भावना से उत्प्रेरित होकर उन्हें कितनी ही यातनाएं देता है; उनके मार्ग में अवरोध बनकर आ खड़ा होता है; यहाँ तक कि उनकी निर्ममतापूर्वक हत्या भी करता है । पार्श्वनाथ आदि से अन्त तक क्षमा की मूर्ति बने रहते हैं। उनका चरित्र हिंसा पर अहिंसा और वैर एवं क्रोध पर क्षमा की विजय का प्रतीक है । कवि ने काव्यांत में निर्देश किया है कि वैर और क्षमा में से देख लीजिये कि कौन हितकर है ?' जो हितकर है, उसी को हृदय में धारण कर लीजिये, अर्थात् वैर-विरोध को छोड़कर मैत्रीभाव को अपनाना ही श्रेयस्कर है। इसी काव्य में स्वर्ग-नरक आदि के प्रसंग की उद्भावना के पीछे शुभाशुभ कर्मों के फल की ओर संकेत किया गया है। पाप और दुराचार के परिणामस्वरूप मनुष्य का जीव नरक में पहुँचकर कैसी-कैसी भयंकर यातनाओं से छटपटाता है, कृत कर्मों का स्मरण कर कितना पश्चात्ताप करता है-यह भावना मनुष्य को उच्छखल बनने से कुछ रोकती है और उसे संयमित करती है। एक सीमा तक मनुष्य को मनुष्यता से गिरने से बचाती १. पार्श्वपुराण, पद्य ३२०, पृष्ठ १७४ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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