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________________ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन सम्यक आचरण करना तथा तप-मार्ग में आये हुए कष्टों को शान्त भाव से सहना आदि । . इस प्रकार 'संवर' तत्त्व मोक्ष मार्ग का प्रकाशक है। मानव की सम्पूर्ण साधना की सफलता इसी पर निर्भर है । आगे चलकर 'निर्जरा' तत्त्व द्रष्टव्य है। निर्जरा मोक्ष के दो ही हेतु हैं—एक संवर और दूसरा निर्जरा । संचित कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना (झड़ जाना) निर्जरा है। 'संवर' से यद्यपि नवीन कर्मों का आना रुक जाता है, तथापि पुरातन कर्म तो आत्मा में संचित ही रहते हैं; उनको ही दूर करने के लिए आत्मा को विशेष प्रयास की आवश्यकता होती है क्योंकि वे एक साथ आत्मा से विलग नहीं हो जाते, अपितु क्रम-क्रम से दूर होते हैं। कर्मों के इसी क्रम-क्रम से दूर होने को निज रा कहते हैं। कर्मों की यह निर्जरा तप से होती है। सफल निर्जरा के लिए आत्म-ध्यान अर्थात् तपश्चर्या अनिवार्य है। तप ही कर्म-शृंखला छिन्न-भिन्न करके जीव को मुक्तावस्था दिलवाता है। आत्म-ध्यान ही सबसे बड़ा तप है और इसी से कर्मों की निर्जरा होती है । निर्जरा के पश्चात् अन्तिम तत्त्व मोक्ष को लीजिये। मोक्ष बन्ध के अभाव का नाम ही मुक्ति या मोक्ष है। दूसरे शब्दों में, मोक्ष का अर्थ है कर्म-बन्ध के कारणों का अभाव और संचित कर्मों का निर्ण जासों सुख तुम कहत हो, सोई दुःख निदान । सबै सुख तप के किये, मानो वचन प्रमान ॥ जो सुख चाहै तप करो, फेरि घरै मत जाव । जैसी संगति खेलि हो, तैसे परि है दाव ॥ ___-नेमिचन्द्रिका (श्रासकरण), पृष्ठ २४-२५ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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