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________________ ३७२ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन कहने का तात्पर्य यह है कि पुद्गल का साहचर्य जीव के लिए घातक और उसकी मुक्ति में बाधक है। इसी से उसकी ज्ञान-दृष्टि पर परदा पड़ा रहता है और अपनी चरम अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता; इसी से वह कर्मों में आबद्ध होता हुआ, भोग-मग्न होकर दुर्गतियों में भटकता है। पौद्गलिक जीव अगणित कष्टों और पापों का भागी बनता है, अत: पुद्गल से पृथक् हुए बिना जीव का उद्धार सम्भव नहीं है । जीव यदि स्वयं को अन्तर्दृष्टि से देखता है तो शुद्धात्मतत्त्व प्राप्त कर लेता है, किन्तु बाह्य दृष्टि से उसे पौद्गलिक छाया के अतिरिक्त कुछ प्राप्त नहीं होता। जीव सम्यक दृष्टि से स्व-पर के भेद से अवगत होकर पुदगल रागादिक का परिहार कर सिद्ध-समान हो जाता है। सारांश यह है कि अजीव तत्त्व के भेदों के अन्तर्गत पुद्गल का महत्त्वपूर्ण स्थान है और धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल एक प्रकार से गौण कहे जा सकते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल पुद्गल के अतिरिक्त धर्म-अधर्म भी अजीव तत्त्व के भेद हैं। इनका भैया भरम न भूलिये, पुद्गल के परसंग । अपनो काज संवारिये, आय ज्ञान के अंग ॥ आय ज्ञान के अंग, आप दर्शन गहि लीजै । कीजै थिरता भाव, शुद्ध अनुमो रस पीजै ॥ -शतअष्टोत्तरी, पद्य ७१, पृष्ठ २४ । जीव देह बस कर्म विध कर। भोग मगन हदुरगति फिरै ॥ -सीता चरित, पद्य २१६६, पृष्ठ १२६॥ चेतन कर्म चरित्र, पद्य १८०-८१, पृष्ठ ७३। अंतर की दृष्टि खोल चिदानंद पाइयेगा । बाहिर की दृष्टि सों पौद्गलिक छाया है। शतअष्टोत्तरी, पद्य ६०, पृष्ठ २१ । ५. सूआ बत्तीसी, पद्य २८-२६, पृष्ठ २७० ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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