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________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपावं स्वर्ग-नरक आलोच्य काव्यों में स्वर्ग-नरक में विशेष विश्वास प्रकट किया गया है । आयुपर्यन्त जो जीव शुभ भावों से च्युत नहीं होता, वह स्वर्गगामी होता है, जैसे आनन्दकुमार नाम का राजा 'आनत' नाम के स्वर्ग में अनन्त सुख एवं ऐश्वर्य भोगने का भागी बनता है । स्वर्ग की सुख-सम्पदा अतुलनीय है। अशुभ कर्मों के बंध से जीव नरक का संताप सहता है। वहाँ की वेदना निस्सीम है और वहाँ का दृश्य लोमहर्षक । नरकभोगने वाले को वेदना सभी नरकों में मिलती है, किन्तु सप्तम नरक की सबसे ऊपर है।" नरक में निवास करने वाले सभी जीव नपुंसक होते हैं। स्वर्ग-नरक की भाँति ही 'जन्म-मरण और पुनर्जन्म' भी विश्वास की भूमिकाएँ हैं। जन्म-मरण और पुनर्जन्म विश्वास है कि यदि जीव में मुक्ति की क्षमता नहीं है, तो वह जन्म . १. जैन परम्परा में सोलह स्वर्ग माने गये हैं, जिनमें एक 'आनत' भी है। पार्श्वपुराण, पद्य १८० से १६८, पृष्ठ ६६-७१ । यशोधर चरित, पद्य ५२१ । *. नरक सात माने गये हैं-रत्नप्रभा, शर्करा प्रभा, बालुक प्रभा, पंक प्रभा, धूप प्रभा, तम प्रभा और महातमः प्रभा। जनम थान सब नरक में, अंध अधोमुख जौन । घंटाकार घिनावनी, दुसह बास दुख भौन ॥१३१॥ तिनमें उपजे नारकी, तल सिर ऊपर पाय । विषम वज्र कंटकमयी, परें भूमि पर आय ।।१३२।। जो विषल बीछू सहस, लगे देह दुख होय । नरक धरा के परसते, सरिस वेदना सोय ॥१३३।। -पार्श्वपुराण, पद्य १३१ से १३३, पृष्ठ ३७-३८ । ६. पार्श्वपुराण, पद्य १६८, पृष्ठ ४१ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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