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________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व ३४१ पंच परमेष्ठी कहा गया है। जैनों के प्रमुख मंत्र ‘णमोकार मंत्र" में भी इन पाँचों की वंदना की गयी है। इन पाँचों का यशोत्कर्ष एवं वैभवोत्कर्ष अनिर्वचनीय है। श्रद्धापूरित हृदय से वंदना-रूप में इन पाँचों का स्मरण करना प्रायः प्रत्येक कवि के लिए अभीष्ट रहा है क्योंकि ये ही पंच परम गुरु हैं। इन्हीं की सहायता से 'जिनवाणी' की पहचान सम्भव है। और इन्हीं के द्वारा दुःखों का विशाल पर्वत का भंजन किया जा सकता है। अर्हन्त __ 'पंच परमेष्ठी' में सर्व प्रथम अर्हन्त वंद्य हैं। अधिकांश काव्यों में अर्हन्त को जिन, जिनेन्द्र, जिनेश, जिनेश्वर, जिनदेव, वीतराग, तीर्थकर आदि अनेक नामों की संज्ञा दी गयी है । 'जिन' का अर्थ है-रागद्वषादि आत्म-शत्र ओं को जीतने वाला। आत्म-शत्रु ओं को नष्ट करने वाला अर्हन्त कहलाता है, अतः जिन और अर्हन्त में कोई भेद नहीं है। दोनों ही मंगल रूप हैं।" __तीर्थंकर भी अर्हन्त कहलाते हैं । अनेक प्रबन्धों में उनके 'अतिशय' की वंदना का विधान है। 'पार्श्वपुराण,' 'नेमीश्वर रास' आदि प्रबन्धकाव्यों में णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सब्ब साहूणं ।। पंच परम गुरु वंदन करौं । कर्म कलंक छिनक में हरौं। -शीलकथा, पृष्ठ १। ३. नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ १ । .. प्रथम देव अरहंत नमि, प्रभु मुख वानी सार। -श्रेणिक चरित, पद्य १, पृष्ठ १ । शील कथा, पृष्ठ १। (क) पार्श्वपुराण, पद्य १, पृष्ठ १०७ । (ख) यशोधर चरित, पृष्ठ १ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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