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________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व भाग्य मनुष्य की भाग्य-लिपि नहीं मिटती, चाहे सूर्य पश्चिम दिशा में उगने लगे, धरती आसमान में उड़ जाये, अचल सुमेरु अवनी-तल में चला जाये, प्रज्वलित अग्नि शीतल स्वभाव ग्रहण कर ले, शैल-शिला पर कमल खिलने लगें, पाषाण-नौका जल में तैरने लगे और ब्रह्माण्ड ताल में समा जाये, तो भी विधाता का लिखा हुआ टल नहीं सकता।' संगति संगति अपना अक्षुण्ण प्रभाव छोड़ती है। सुसंगति जीवन-निर्माण में सहायक और कुसंगति बाधक है। उत्तम के साथ रहने से उत्तम, मध्यम के साथ मध्यम और अधम के साथ अधम फल प्राप्त होता है : तपे तवा पर आय, स्वाति जल बूद बिनट्ठी । कमल पत्र परसंग, वही मोतीसम दिट्ठी ॥ सागर सीप समीप, भयो मुक्ताफल सोई । संगत को परभाव, प्रगट देखो सब कोई ।। यों नीच संग तें नीच फल, मध्यम ते मध्यम सही। उत्तम संजोग तें जीवको, उत्तम फल प्रापति कही । राज्यनीति आलोच्य काव्यों में ऐसे बहुत कम काव्य हैं, जहाँ राज्यनीति का उल्लेख हुआ है । जहाँ कहीं इसका उल्लेख हुआ है, वहाँ भी स्वल्प मात्रा में। इस विषय से सम्बन्धित नीतियों के लिए 'सीता चरित,' 'पार्श्वपुराण, 'चेतन कर्म चरित्र,' 'शील कथा,' 'नेमीश्वर रास' आदि प्रबन्धों के नाम लिये जा सकते हैं। १. शतअष्टोत्तरी, पद्य ८७, पृष्ठ २७ । २. पार्श्वपुराण, पद्य १२३, पृष्ठ १५ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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