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________________ नैतिक, धार्मिक एवं दाशनिक परिपाव काव्य आनन्द की सृष्टि के लिए नीति, धर्म अथवा दर्शन को निरूपित नहीं करता, किन्तु उसकी व्यापक परिधि के भीतर से ये एक सौन्दर्यपूर्ण आवेष्टन में आवत होकर स्वतः ही झाँका करते हैं। काव्य मनुष्यता की उच्च भूमि का स्मारक स्तम्भ है। मनुष्यता की उच्च भूमि नैतिक एवं धार्मिक आदर्शों से असम्पृक्त नहीं रहती, साथ ही वह दार्शनिक स्पर्श भी चाहती है। हम यह देखते हैं कि हमारे अधिकांश आलोच्य काव्यों में धार्मिक जगत् उभरा हुआ है, कुछ में कहीं-कहीं नीति-उक्तियाँ बिखरी हुई हैं और कुछ में दार्शनिकता का पुट है। अतएव उनका नैतिक, धार्मिक और दार्शनिक परिपार्श्व देखने के लिए प्रस्तुत अध्याय को तीन उपशीर्षकों में विभाजित किया गया है-१. नीति, २. धर्म और ३. दर्शन । १. नीति नीति और धर्म, दोनों की पृथक् सत्ता नहीं है । दोनों का सम्बन्ध मानव और मानवीय हित से है। 'सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर धर्म और नीति में कोई वास्तविक अन्तर नहीं है, किन्तु स्थूल दृष्टि से दोनों में भेद की प्रतीति होती है। भेद-दृष्टि से नीति का क्षेत्र स्व-हित-चिन्तना है और धर्म का लोक-हित-चिन्तना । नीति के समक्ष व्यक्ति का ऐहिक्त सुख रहता है जो अपनी परिधि में आचरण के केवल व्यावहारिक पक्ष को रखता है, परन्तु धर्म की दृष्टि आचरण के पारमार्थिक पक्ष पर लगी रहती है ।२ . पं० रामचन्द्र शुक्ल : चिन्तामणि (भाग-१), पृष्ठ १६० । २. डॉ० सरनामसिंह शर्मा 'अरुण': हिन्दी साहित्य पर संस्कृत साहित्य का प्रभाव, पृष्ठ २१२ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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