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________________ भाषा-शैली ३०६ पालन किया गया है । यह छन्द-परिवर्तन कहीं एक ही छन्द से भी हुआ है। और कहीं छन्द-समूह के साथ भी। 'राजुल पच्चीसी' और 'नेमिनाथ मंगल' काव्य एक ही छन्द (ढाल) में रचे गये हैं। उनमें प्रबन्ध की छन्द-परम्परा का विच्छेद कहा जा सकता है, परन्तु उनमें छन्द न बदले जाने से भी उनका प्रबन्धत्व और काव्यत्व सुरक्षित रहा है । ये दोनों कृतियाँ यह सिद्ध करती हैं कि परिवर्तित भाव के लिए परिवर्तित छन्द का चयन किया जाना आवश्यक नहीं है। अधिकांश आलोच्य काव्यों में संस्कृत के वणिक छन्दों का प्रयोग कम हुआ है; उनमें प्रधानता हिन्दी के मात्रिक छन्दों की है। मात्रिक छन्दों में सर्वाधिक रूप से चयन 'चौपई' छन्द का है। इसके साथ ही उनमें दोहा छन्द भी बहुलता से प्रयुक्त हुआ है । वस्तुतः 'दोहा-चौपई' ये दो छन्द ऐसे हैं, जिनका प्रयोग अधिकांश प्रबन्धकाव्यों में कहीं सामान्य और कहीं विशेष रूप में हुआ है । प्रबन्धकाव्य के लिए ये दोनों उपयोगी छन्द हैं, अत: उनका प्रयोग आलोच्य प्रबन्धों में अनिवार्य-सा परिलक्षित होता है। इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि जैन कवियों ने १६ मात्रा वाले 'चौपाई' छन्द के स्थान पर १५ मात्रा वाले 'चौपई छन्द को विशेषतः अपनाया है। उदाहरण के लिए एक 'चौपई' छन्द उद्धृत किया जाता है : चंपक पारिजात मंदार । फूलन फैल रही महकार ॥ चैत विरछ तें बढ्यो सुहाग । ऐसे सुरग रबाने बाग ।।३ १.. (क) देखिए-भद्रबाहु चरित्र, द्वितीय सन्धि का अन्त, पद्य ६५, पृष्ठ ३८ । (ख) देखिए-पावपुराण, चौथे अधिकार का अन्त, पद्य २४३, पृष्ठ ७५। २. पार्श्वपुराण, तीसरे अधिकार का अन्त, पद्य २२७ से २३३, पृष्ठ ४७-४८ । १. पार्श्वपुराण, पद्य १८४, पृष्ठ ७०१ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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