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२६८ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन के विशेष द्वार हैं । भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं। ___ यदि अलंकारों का श्रेणीविभाजन किया जाये तो मोटे रूप में उनके दो प्रकार सामने आते हैं-शब्दालंकार और अर्थालंकार । विवेच्य काव्यों में इन दोनों प्रकार के अलंकारों का विधान मिलता है । इतना अवश्य है कि हमारे कवियों की अलंकरण की ओर प्रवृत्ति अधिक नहीं दिखायी देती, फिर भी उन्होंने भाव की अभिव्यक्ति को आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक बनाने के लिए अलंकारों का सहारा लिया है। प्रबन्धों में अलंकारों के प्रयोग से भाषा में सौष्ठव और भावों में चित्रमयता का आविर्भाव हो गया है । इन काव्यों में अलंकारों का प्रयोग प्रयत्नसाध्य कम और सहजसाध्य अधिक प्रतीत होता है। पहले शब्दालंकार द्रष्टव्य हैं, जिनमें शब्द का ही विशेष चमत्कार दर्शनीय है। अनुप्रास
आलोच्य काव्यों में ऐसा कोई काव्य नहीं है, जिसमें अनुप्रासयुक्त शब्दावली न मिल जाती हो। उनमें अनुप्रास अलंकार का प्रयोग कहीं सहज भावाभिव्यंजना के लिए हुआ है, कहीं ध्वनि और शब्द-वैचित्र्य के लिए और कहीं उसे जबर्दस्ती ठूसा गया है । सभी के उदाहरण लीजिये !
निज जननी विजया जु सुनन्दा मांत को।
दान मान सनमान कियो बहुभांत कौ ॥ इसमें वर्णों की आवृत्ति सहज रूप में स्थान पा गयी है । कवि उनकी योजना के लिए सिर खुजलाता प्रतीत नहीं होता । ऊपर की पंक्ति में अनुप्रास के विधान के अलावा नीचे की पंक्ति में 'दान मान सनमान' का प्रयोग अर्थसौष्ठव में सहायक हुआ है । इसी प्रकार :
हिनहिन हय रव करत कंध कंपावत अति वर ।
१. पन्त : पल्लव (प्रवेश), पृष्ठ २२ ।
जीवंधर चरित (नथमल बिलाला), पद्य १७६, पृष्ठ १०४ । वही, पद्य १३०, पृष्ठ १०२।