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________________ भाषा-शैली २७५ सुत को आलिंगन कर उदार । पुनि मस्तक चुम्यौ हरष धार । करि मोह प्रबल बैठाय अंक । तजि सोक भई माता निसंक ॥' यह जीवन्धर और उसकी माता के मिलन का प्रसंग है । प्रत्येक शब्द प्रसंग, परिस्थिति और भाव-रसानुकूल है। इतना ही नहीं, यह सहज माधुर्य से ओतप्रोत, मर्मस्पर्शी और सार्थक है। इसमें शब्दों के समुचित प्रयोग के साथ ही सुत का आलिंगन करना, फिर हर्षित होकर मस्तक को चूम लेना, स्नेहातिरेक से गोद में बैठा लेना और बहुत समय से शंका और शोक से पूरित हृदय को हलका कर लेना आदि में भाव-सौरस्य भी देखने योग्य है। इसी प्रकार बार-बार पूछ पदम सीता की कूसलात । फिरि फिरि पूछे मोह धरि कही कही इहि बात ॥ इस दोहे की पहली पंक्ति में 'बार-बार' और दूसरी पंक्ति में 'फिरिफिरि' तथा 'कही-कहाँ' शब्दों का प्रयोग बिल्कुल युक्तियुक्त है । उनका प्रयोग अलंकार-चमत्कार के फेर में पड़कर नहीं, भाव की गहराई को प्रकट करने के लिए किया गया है । सीता के वियोग में विह्वल राम की अंत:प्रकृति के रहस्य को उद्घाटित करने वाले उपर्युक्त शब्द बोलते हुए-से प्रतीत होते हैं। शब्दों का सुन्दर और साभिप्राय प्रयोग यहाँ देखते ही बनता है। ऐसे ही चित्र और लिये जा सकते हैं : ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मनवांछित जन पावै । तिसना नागनि त्यों त्यों डंके, लहर जहर की आवै ॥ ये शब्द तृष्णा को नागिन का रूप देकर उसके जहर की लहर से मानव को अटपटी अवस्था में डाल देने के भाव को अच्छी प्रकार से प्रकट करने १. जीवंधर चरित (नथमल बिलाला), पद्य १२७, पृष्ठ ८६ । २. सीता चरित, पद्य १३३६, पृष्ठ ७२ । ३. पार्श्वपुराण, पद्य ६३, पृष्ठ ३४ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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