SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७० जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन शब्द - स्रोत ' शब्द चयन ही कविता की वास्तवित कला है और इसके बिना उसमें कलात्मकता आ नहीं सकती ।" सहज कला के विनिवेश के लिए, भाव एवं अर्थ- सौरस्य के लिए कवि किसी भी भाषा से अपने शब्दों का चयन करने में स्वतंत्र है । हमारे कवियों की भाषा में विभिन्न भाषाओं के शब्दों का योग है । ब्रजभाषा में रचना करते हुए आलोच्य कवियों में कट्टरता का भाव नहीं मिलता । भाषा के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण उदार रहने के साथ ही लोक रुचि को प्रधानता देने का रहा है। ब्रजभाषा के सहज रूप को अक्षुण्ण रखते हुए उन्होंने सभी प्रकार के शब्दों को अपना बना लिया है । उन्होंने अपनी भाषा में निस्संकोच भाव से अन्यान्य प्रचलित शब्दों को प्रयुक्त किया है । उनके प्रबन्धों में तत्सम तद्भव, देशज, विदेशी आदि सभी शब्दों क प्रयोग हुआ है । उनमें अनेक स्थलों पर ऐसे शब्द भी पर्याप्त मात्रा में प्रयुक्त हुए हैं, जो प्राकृत - अपभ्रंश के हैं । तत्सम शब्द हमारे प्रबन्धकाव्यों में तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक नहीं हुआ है । ऐसे शब्दों का प्रयोग स्तुति एवं दार्शनिक स्थलों तथा अप्रस्तुत योजना में अधिक हुआ है, फिर भी संस्कृत के सामान्य शब्दों का व्यवहार स्थलस्थल पर मिल जाता है, जैसे—अंग, अनंग, रंग, आलिंगन, उर, उद्यम, त्याग, ऋतु, सर्वज्ञ, सुत, दोष, नारी, धर्म, दान, शील, तप, संयम, चतुष्टय, संयम, हिंसा, अहिंसा, प्रभु, गुण, प्रस्ताव, सुभट, शूर, राग, द्व ेष, निश्चय, अनंत, रत्नत्रय, रसाल, उत्तम, जगदीश, रण, अरि, आज्ञा, चैतन्य, हंस, धनुष, वाण, वीतराग, पुर, द्वार, सकल, अनूप, गुप्त, उपशांत, शिथिल, रुधिर, परित्याग, निराकार, निर्मल, अविचल, निरंजन, स्वरूप, लक्षण, १. दिनकर : मिट्टी की ओर, पृष्ठ १५२ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy