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________________ रस-योजना २५६ करते हुए उपयुक्त रस का सुन्दर चित्र स्थापित किया है।' 'सीता चरित' में रौद्र और वीर के सहचर के रूप में इस रस की अच्छी व्यंजना है। यह सच है कि कुछ ही प्रबन्धकाव्यों में बीभत्स रस के स्थलों का समावेश हुआ है । ऐसे स्थलों की अवतारणा के परिपार्श्व में प्रबन्धकारों का लक्ष्य प्रायः जीवन की ममत्वजनित बाधाओं को दूर करने का रहा है। इन्हीं स्थलों के द्वारा उन्होंने शान्त रस की पृष्ठभूमि तैयार की है। निष्कर्ष ऊपर हमने आलोच्य काव्यों की रस-योजना पर अपना विवेचन प्रस्तुत किया है । इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि न्यूनाधिक मात्रा में सभी रसों को कवियों ने अपने काव्यों में स्थान दिया है। विविध रसों के विविध स्थलों पर उनकी दृष्टि अच्छी प्रकार रमी है। इनमें शास्त्रीय दृष्टि से पूर्णता, मार्मिकता, हृदयस्पर्शिता, प्रेषणीयता और प्रभावान्विति पर्याप्त मात्रा में मिलती है। यह अवश्य है कि अधिकतर काव्यों का अवसान शान्त रस में हुआ है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कवियों ने अन्य रसों की सृष्टि केवल इसीलिए की है कि उनके इष्ट रस 'शान्त' की पुष्टि हो जाये। इस कारण कुछ रस शान्त की पृष्ठभूमि बनकर रह गये हैं, यद्यपि उन रसों की व्यंजना में कोई कमी नहीं आयी है । फलतः यह कहना अनुपयुक्त नहीं है कि अधिकांश प्रबन्धकाव्य शान्त रस प्रधान या शान्त रसावसित हैं। उनमें इस रस के उपरान्त भक्ति रस को स्थान दिया जा सकता है देवी को थान दुष रासि । अस्व मांस जाके चहुं पासि ॥ रुधिर तणी नदी सम बहै । जहाँ काक क्रीड़त दुष लहै ।। गिरधर पंषी आवं जहाँ । मांस सुवाद तणे वसि तहाँ ॥ चौ गिरदा सिर माला परी । नरक तणी भुव सम दुष भरी॥ -यशोधर चरित, पद्य १३८-३९ । २. सीता चरित, पद्य १६०, पृष्ठ १०७ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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