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________________ रस-योजना २३७ 'सीता चरित' में जहां संयोगात्मक स्थल बहुत थोड़े हैं, वहाँ वियोगात्मक स्थलों की बहुलता है ।' आगे विप्रलंभ शृंगार का एक चित्र 'शील कथा' से उद्धृत है : अब ताही अरण्य के मांही । ऐसे जो विलाप करांही ।। तुम बिन सहे दुःख घनेरे । सुन लीज साहब मेरे ।। मैं पीहर हू ते काढ़ी । अरु मेहर ते हू छांड़ी ॥ अब पड़ी अरण्य के मांही । मोकौं कहुँ सरनौ नाहीं ।। ताते सैया सुन लीज । सपनेहू दिखाई दीजै ॥ ऐसो रुदन कियो बहु ताने । पशु पंछी सुन कुम्हलाने ।। सिंहादिक पशु जो होई। अति दुष्ट स्वभावी सोई ।। ते भी अति रुदन करावें । आंसू बहु नैन बहावें ॥ यह मनोरमा की विरह-विह्वल अवस्था का प्रसंग है। मनोरमा आश्रय और उसका प्रिय आलम्बन है । एकांत, भयानक अरण्य, प्रियतम से विछोह, ससुराल और मायके दोनों स्थानों से उसका परित्याग उद्दीपन हैं। विषाद-उद्वलन, विलाप और रोदन अनुभाव है । स्मृति, विषाद, ग्लानि आदि संचारी भाव हैं। यहाँ विप्रलंभ की तीव्र व्यंजना में सबसे अधिक सहायक हुआ है-पशु-पक्षियों का कुम्हलाना, रुदन करना और आंसू बहाना। उपर्युक्त काव्य में वियोगिनी मनोरमा के विह्वल हृदय की भावनाओं में ही विप्रलंभ शृंगार साकार नहीं हुआ है, अपितु उसके पति सुखानन्द की भी लगभग वैसी ही स्थिति है। वह वस्त्र-आभूषणों को उतारकर, फकीरी वेश बनाकर, अंग में भभूत रमाकर पागलों जैसी विस्मृति-स्मृति लेकर अपनी प्रिया के लिए 'हाय गई कित हाय गई' पुकारता फिरता है । उसके मनो १. सीता चरित, पृष्ठ ६ । २. शील कथा, पृष्ठ ३७-३८ । '. वही, पृष्ठ ५८-५६ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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