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________________ २२२ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन भावों के निमित्त-स्वरूप विभाव विषय अथवा आलम्बन हैं और जिसके हृदय में भाव जाग्रत हों, वह आश्रय है। अनुभाव आलम्बन, उद्दीपन आदि कारणों से उत्पन्न भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले कार्य 'अनुभाव' कहे जाते हैं, अर्थात् वाणी तथा अंग-संचालन आदि की जिन क्रियाओं से आलम्बन तथा उद्दीपन आदि के कारण आश्रय के हृदय में जाग्रत भावों का साक्षात्कार होता है, वे व्यापार 'अनुभाव' कहलाते हैं।' 'अनुभावों के 'कायिक', 'मानसिक', 'वाचिक', 'आहार्य' आदि भेद किये गये हैं। व्यभिचारी भाव जो भाव विशेषरूप से स्थायी भाव की पुष्टि के लिए तत्पर या अभिमुख रहते हैं और स्थायी भाव के अन्तर्गत जिनका आविर्भाव और तिरोभाव होता रहता है, वे संचारी या व्यभिचारी भाव कहलाते हैं। संचारियों की संख्या कितनी है, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद रहा है, परन्तु सामान्यतया उनकी संख्या तेंतीस मानी गयी है। स्थायी भाव स्थायी भाव मनोविकारों में सर्वोपरि हैं। जो भाव विरोधी एवं अविरोधी भावों से विच्छिन्न नहीं होते, अपितु विपरीत भावों को अपने में घुला-मिला लेते हैं, वे स्थायी भाव हैं । स्थायी भाव रस-परिणति तक स्थिर १. हिन्दी साहित्य-कोश, पृष्ठ २६ । निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, मति, धृति, बीड़ा, (लज्जा), चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, सुप्ति, अपस्मार, विबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रता, वितर्क, व्याधि, उन्माद, त्रास और मरण ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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