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________________ २०४ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन आता है। वह जौहरी होते हुए भी ठगों का राजा, कपटी, वाचाल, सुसीख की अवहेलना करने वाला, धूर्त परधन-लोलुप और सत्य पर आवरण' डालने वाला है । उसके जीवन की एक ही घटना उसके चरित्र की परतों को खोलकर रख देती है। राजगृह नगर का राजकुमार 'शीलकथा' में राजगृह नगर के राजकुमार का पतित आचरण एक कामान्ध एवं मदान्ध पुरुष के चरित्र का स्मरण कराता है । वन-क्रीड़ा, सौन्दर्य और वासना उसे प्रिय है । वह निर्जन-एकान्त वन में विलाप करती हुई वियोगिनी मनोरमा को रनिवास में ले आता है और उसे अपना बनाना चाहता है । अन्ततः उसे अशुभ कर्म का अशुभ एवं निन्दनीय फल भी चखना पड़ता है। २. १. शीलकथा, पृष्ठ ११ । इहि विधि सों समझायौ नार । एक न मानी मुगध गमार । फिर नारी सों ऐसी कही । आखिर अबला जात सो सही ॥ औगुन आठ सदा उर रहे । मरम भेद कहु जाहि न कहे ।। -वही, पृष्ठ है। ३. तब बोल्यो ऐसे धनपाल । भो महाराज सुनो भूपाल ।। ऐसी ठगई करे जो कोय । दीरघ दंड दीजिये सोय । गर्दभ पर दीजै चढ़वाय । मुलकारी दीजै करवाय ॥ गृह की लक्ष्मी लेहु लुटाय । और देश ते देहु कढ़ाय ॥ -वही, पृष्ठ १६ शीलकथा, पृष्ठ ३६ । पकरे ताके तब चरन सार । धरती पै पछारो तीन बार । फिर हाथ पांय कसके बनाय । बाँधे ताके मुसके चढ़ाय ।। कर ऊर्ध्व चरन लटकाय दीन । कर नीचे को मुख त्रास दीन ।। फिर चाबुक कर में लियौ सारं । सो मार दई ताको अपार ।। -वही, पृष्ठ ४३ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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