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________________ चरित्र-योजना १६५ वह राजकुमारी होते हुए भी अभागिनी है। उसे वैवाहिक वेला में ही सांसारिक मोह-बन्धनों का परित्याग कर कठोर तप करने के लिए अपने जीवन को समर्पित करना पड़ता है। उसके पति विवाहोत्सव को छोड़कर तप के लिए चले जाते हैं। अतः उसका मधुर राग विराग में बदल जाना स्वाभाविक है। इस आकस्मिक दुःख-भार को सहने में वह नारी-सुलभ कोमलता और दुर्बलता का परिचय देती है : कंखो सकल सरीर तसु, रोम रोम फहराय । घूमि गिरि भूपर परत, भई अचेतन भाय ॥ पीय वियोग सूरय उयो, किरन सही अति जोर। रमत रूप कमोदिनी, मुरझानी लषि भोर ॥ ऐसी स्थिति में उसका मूच्छित होना, रोना-विलखना' अथवा उसके हृदय में भय, चिन्ता, ग्लानि, पश्चात्ताप, निराशा आदि भावों का जाग्रत होना उसकी जातिगत विशेषता है। एक राजपुत्री के लिए, जिसका विवाह नहीं हुआ, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ पति मिल जाना दुर्लभ नहीं है, किन्तु राजुल को यह स्वीकार्य नहीं होता । वह बड़े धैर्य और विवेक से अपने पिता से निवेदन करती है कि 'हे पिता ! आप समझ लीजिये कि मेरा विवाह हो गया। नेमिनाथ के अतिरिक्त मेरा कोई पति नहीं है। मैं आपकी शपथ खाकर कहती हूँ कि संसार के समस्त जन मेरे लिये पिता या भाई-बन्धु के समान १. नेमिनाथ चरित, पद्य १७१ से १६६ । २. नेमिचन्द्रिका (मनरंगलाल)। .. राजीमती विलषी भई, ज्यों क्षुधातुर कोइ होय तौ ॥ मन वांछित भोजन मिले, पाछे षोंसि लेय ज्यों कोय तौ। -रास भणों श्री नेमि को ॥१०४८॥ -नेमीश्वर रास, पृष्ठ ६१ । सुन मायल हो कौन गुनह मोहि लाय जादोंराय परिहरी । सुन मायल हो मोहि तजी विललात भजी शिव सुन्दरी ॥ -राजुल पच्चीसी, पद्य ४, पृष्ठ ३ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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