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________________ चरित्र-योजना १६३ लक्ष्मण के साथ वन को जाती हुई सीता सहृदयों को अधिक संवेदनशील बनाकर आकृष्ट करती है।' रावण द्वारा उसका हरण उसके जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। यह घटना उसके रूप को बिलकुल बदल देती है । रावण के कठोर बन्धन में पड़ी हुई सीता के लिए (विलाप करते हुए) राम-लक्ष्मण का नाम लेने के अतिरिक्त शेष ही क्या रह गया है ? हा ! हा !! देव कहा कियौ, सीता करै विलाप । हा लछिमन ! हा रामजी !! हिरदा में इह जाप ॥ शील-पथ पर आरूढ़ वियोगिनी सीता परदे के भीतर यूथविहीन मृगी की भांति रोती और छटपटाती है। उसके चारों ओर विपत्तियों का जाल बिछा दिया जाता है, परन्तु वह सब कुछ सहन करते हुए भी अपने सतीत्व से नहीं डिगती, रावण की शरण नहीं गहती : और सिंध पन्नग विकराल । करै सबद कोप्यौ ज्यों काल । अर मरकट हड़हड़ धुनि करै। भै उपजै मुझ सरणे धरै ।। आये पहले पहर मतंग । तिण देषे कांप सब अंग ।। सीता रही बहोत भै षाय। पं रावण सरणें नहिं जाय ।। निर्वासन के अवसर पर भी वह अपने कर्म और भाग्य के अतिरिक्त किसी को दोष नहीं देती। एकाकी वन में भटकती हुई अवस्था में उसका १. सीता चरित, पद्य ४४१-४४२, पृष्ठ २८ । २. वही, पद्य ६११, पृष्ठ ५० । ३. सीता परदा के अंतर । जाके दृढ़ सील निरंतर । रोवै अतिसय है वियोग । विछरी मिरगी ज्यौं सौग ।। -वही, पद्य ६१६, पृष्ठ ५४ । ४. वही, पद्य ६६८-६६, पृष्ठ ५३ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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