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________________ चरित्र-योजना १९१ है। न्यायार्थ वे अपने पुत्र को भी दण्ड देते नहीं हिचकते ।। सेनापति आलोच्य काव्यों में से 'सीता चरित' में सेनापति का चरित्र-चित्रण हुआ है । यह अवश्य है कि उसके चरित्र का पूर्ण विकास काव्य में परिलक्षित नहीं होता । कवि द्वारा उसके सीमित इतिवृत्त में उसके चरित्र के आदर्श की झलक भर दे दी गई है । सीता-निर्वासन के अवसर पर सेनापति का चरित्र अपनी सीमाओं एवं विवशताओं में भी आदर्श को मुखरित करता है। उमकी वाणी से उसकी आज्ञाकारिता एवं विनयशीलता टपकती है : याही वन को तुमहि को, हुकम कियौ रघुनाथ । सेवक को कछू बस नहीं, कहौं जोरि जुग हाथ ।। उसने कोमल, भावुक और संवेदनशील हृदय पाया है। सीता को निर्जन वन में छोड़ते हुए उसके चरित्र की महनीयता प्रकट होती है : सेनापति अति रह यो सोच में, भयौ बहुत दलगीर । ऊँचौ फिरि देष नहीं, नैन झरै अति नीर ।। माता हू विरथा जन्यौ, बही मास नौ भार । चाकर ते कूकर भलौ, ध्रग म्हारौ जम बार ॥ १. तब भूप कहै सुन भाई । जो निग्रह जोग अन्याई ॥ तापं करुना किम होहै । यह न्याय नृपति नहीं सोहै ।। -पार्श्वपुराण, पद्य ८८, पृष्ठ १२ । फिर भूपति ने क्रुद्ध होय कर, कुमरहि दियो कढ़ाई ।। धन्य भूप ये जग में जानों, न्यायवंत सुखदाई ।। न्याय के कारण पुत्र निकारो, ढील करी नहिं कोई । तिनको राज अटल जग होवे, सुजस भूमि परहोई ॥ -~-शीलकथा, पृष्ठ ६५ । २. सीता चरित, पद्य ७०-७१, पृष्ठ ६ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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