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________________ १८८ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन पर विराग और हिंसा पर अहिंसा की विजय को उद्घाटित करता है । वह जिज्ञासु, सत्यान्वेषक और धीर-प्रशान्त प्रकृति का है। वह जिज्ञासा-भाव से परपुरुष में रत रहने वाली अपनी रानी का तलवार लेकर पीछा करता है और उसे रंगे हाथ पकड़कर भी क्षमा-भाव से अपनी उठी हुई तलवार को झुका लेता है । वह क्षमा-भाव की सर्वोपरिता बतलाते हुए कहता है : जे षिमवान पुरिष जग माहि । ते पहरें भूषण अधिकाहि ॥ षिम ही तात षिमा ही मात । मित्र षिमा षिम ही अवदात । उसके हृदय में नारी के प्रति पूज्य भाव नहीं है । अपनी चंचल प्रकृति और अपने विचित्र चरित्र के कारण वह उसके लिए अविश्वास की वस्तु बनी रहती है । वह अध्यात्म-रस का रसिक है। भौतिक जगत् उसके लिए निस्सार है। वह आद्योपांत अहिंसा का पुजारी है। मारदत्त से कहे गये वचनों में स्थल-स्थल पर उसकी अध्यात्म-रसिकता और नीति-विज्ञता परिपुष्ट होती है। उसके चरित्र से वह सिद्ध पुरुष प्रतीत होता है। श्रोणिक 'श्रेणिक चरित' काव्य के अन्तर्गत राजा श्रोणिक तीर्थंकर महावीर की समवशरण सभा का प्रधान श्रोता है । वह मूलतः साधक पात्र है । वह १. यशोधर चरित, पद्य ३०० से ३१३ । वही, पद्य ३२० । संग सरपणी को अति सार । पणि नारी नहिं सुषकार ॥ -वही, पद्य ३८० । *. वही, पद्य ४०६ से ४११ । ५. वही, पद्य ४७६, ५१५, ६३७, ६५६ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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