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________________ १७८ जन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन उस रूप-माधुरी का पान करते-करते तृप्त नहीं होते तो वे सहस्रों नेत्र धारण कर लेते हैं । आभरणयुक्त पार्श्वनाथ के अंग-अंग ऐसे लगते हैं, मानो कल्पवृक्ष की डाली-डाली आभूषणों से सजी हुई है। काव्य में उनकी बाल क्रीड़ाओं के चित्र भी आकलित हैं। उनकी बालक्रीड़ाओं में एक ओर बालकों जैसी मनोवृत्ति, स्फूर्ति, चपलता आदि का स्फुरण है तो दूसरी ओर अलौकिकता का । यथा-वे देवकुमारों के बीच में घुटनों के बल चलते हुए तारों के बीच में चन्द्रमा की उपमा धारण करते हैं । धरती पर छोटे-छोटे चरणों से काँपते हुए चलते यह सोचते हैं कि यह धरती मेरा भार सह सकेगी या नहीं। मुट्ठी बँधे हुए हाथों के साथ उनके पर अटपटे पड़ते हैं। रत्न-रेत लेकर सुर-पुत्रों के साथ क्रीड़ा करते हैं । वे कभी माता को न देखकर रो देते हैं और फिर देखकर हँस पड़ते हैं । कभी शची की गोद छोड़कर मुद्रित मुद्रा में माँ की गोद में बैठ जाते हैं। उनका चरित्र वैर और क्रोध पर क्षमा और अक्रोध की साखी भरता है । अपने पूर्व भवों से लेकर तीर्थंकर भव तक उन्हें अपने ही छोटे भाई कमठ के जीव द्वारा अगणित कष्ट दिये जाते हैं, फिर भी उनके हृदय में प्रतिशोध और क्रोध की भावना नहीं जगती; अन्त तक वे क्षमा को ही धारण किये रहते हैं। वे धीर, वीर और प्रशान्त हैं। नाना उपसगों (कष्ट की झंझाओं) के प्रहार का उन पर कोई प्रभाव नहीं होता; उन्हें वे अविचल भाव से सहते हैं। वे सांसारिक सुख, माया, ममता, तृष्णा एवं भोगलिप्साओं से आकृष्ट १. पार्वपुराण, पद्य ३४ से ३८, पृष्ठ १७ । २. वही, पद्य ८१, पृष्ठ १०१ । वही, पद्य ८ से १८, पृष्ठ १०७-१०८ । ४. वही, पद्य १८ से २२, पृष्ठ १२३ । वही, पद्य १०६-११०, पृष्ठ १४ तथा पद्य २४, पृष्ठ १२४ । इत्यादिक उतपात सब, वृथा भये अति घोर । जैसे मानिक दीप को, लगे न पौन झकोर ।। -पार्श्वपुराण, पद्य २३, पृष्ठ १२३ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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