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________________ १४४ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन संकट राजा घेरी आय, तापर ते तुम लेहु छुड़ाय । राजुलि दुःख करै हिय तने, रोवें पंछी वनमें घने ।। xxx दुःख कटत है पन्थ को, जो कोई दूजा होय । कुमरि अकेली दुख भरी, संग न साथी कोय ॥' 'शीलकथा' में कवि ने मार्मिक स्थलों की सृष्टि में अपनी प्रबन्धपटता का परिचय दिया है । एक स्थल लीजिए---पति की अनुपस्थिति में मनोरमा के चरित्र पर लांछन लगाकर, रथ में बैठाकर सारथी को उसे विकट अरण्य के मध्य छोड़ने का आदेश दे दिया जाता है । मनोरमा के अनुनयविनय करने पर सारथी उसके माता-पिता के घर भी छोड़ आने के लिए प्रस्तुत हो जाता है; किन्तु बिना बुलाई बेटी यदि घर में आती है, तो उस पर संदेह किया जाता है। यही हुआ भी। उसे वहाँ भी आश्रय नहीं मिला। निदान सारथी उसे वन-बीच छोड़ने के लिए विवश हो जाता है । वह रोदन करते-करते उसे रथ से उतारता है, भारी मन से वह चलने के लिए होता है; परन्तु करुणा और मोह उसकी पद-गति पर बन्धन का काम करते हैं। और फिर भयंकर वन के बीच में असहाय रोती-विलखती मनोरमा के विलाप का यह स्थल कितना हृदयस्पर्शी है : सेज सुखासन सोवती, दासी चंपति पाय । धूप तनक जो देखती, वदन जाय कुम्हलाय ।। सो तो विकट अरण्य में, बैठी कोमल नारि । थरहर कंपै बदन सब, रुदन कर अधिकारि ।। १. नेमिचन्द्रिका, पृष्ठ २० । २. शीलकथा, पृष्ठ ३६ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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