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________________ १४२ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन वाणी अवरुद्ध है, जिसके नेत्रों से नीर बह रहा है । इस हृदय की पीड़ा को तो वही जान सकता है जिसके हृदय पर ऐसी बीती हो : नैन झरै अति नीर, बैनन सेती मुष थकी। इह हिरदा की पीर, इहि व्याप सो जानसी ॥' 'सीता चरित' का कवि मार्मिक स्थलों को पहचानने में भूल नहीं करता । जिस स्थल के वर्णन में उसे जितना रमना चाहिए वहां वह उतना ही रमा है । रसात्मक स्थल के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह कलेवर में बड़ा हो, यदि दो पंक्तियों में भी हृदय को आन्दोलित करने वाले क्रियाव्यापार की योजना हो जाती है तो वह पर्याप्त है। ऐसा ही एक स्थल लीजिए । लंका से लौटने पर हनुमान राम को सीता की कुशल-क्षेम का, उसकी करुणावस्था का समाचार सुनाते हैं। यह समाचार बार-बार सुनने पर भी राम के कोमल, दुर्बल, अनुराग और मोह से भरे हुए हृदय को संतोष नहीं होता। वे फिर फिर कर पूछते ही चले जाते हैं : बार बार पूछे पदम, सीता की कुसलात । फिरि फिरि पूछ मोह धरि, कहीं-कही इहि बात ॥ 'श्रेणिक चरित' की कथा के मध्य कवि की भाव-प्रवणता ने अनेक रसात्मक स्थलों को रूप दिया है। इन स्थलों पर कवि ने भाव को उत्कर्ष तक पहुंचाने का प्रयास किया है। पुत्र-वियोग के अवसर पर माता के करुणा-विगलित हृदय का यह चित्र कितना मार्मिक है : १. सीता चरित, पृष्ठ २७ । वही, पृष्ठ ७२। कौतिग कारण पुरतिय निरर्ष, रूप कुमर लषि विह वल धाइ । कोई रसोई घर सूनो तजि, कोई दौड़ी सिंगार छुड़ाइ ॥ कोई छोडेनिज सूत रोवतौ, लोभ पर सुत लेइ उठाइ ।। ज्यों-ज्यों रूप कुमर को देषे, हरष तिय निरष अधिकाइ ॥ -श्रोणिक चरित, पद्य २२४, पृष्ठ ३० ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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