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प्रबन्धत्व और कथानक-स्रोत
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नहीं मानता । पुरोहित राजा से न्याय की याचना करता है । राजा और उसके मंत्री सत्यासत्य का निर्णय लेने में असमर्थ रहते हैं । सुखानन्द कुमार को इस हेतु बुलाया जाता है । वह बड़ी युक्ति से काम लेता है और न्याय दिलाने में समर्थ होता है। साथ ही कवि इस अवांतर कथा के माध्यम से सेठ को कठोर दण्ड दिलवाकर एक नीति तत्त्व को भी प्रतिष्ठापित करना चाहता है कि सभी नर-नारी यह तथ्य हृदयंगम कर लें कि दूसरे का अनैतिक तरीके से लिया हुआ धन कभी घर में नहीं टिकता है :
यातें नर नारी सुन लीजे, परधन प चित न दीजै । निज भाग लिखी सो होई, जाको मैटनहार न कोई । जो न्यायरहित धन लाही, नहीं रहै भवन के माहीं । तातें उत्तम नर नारी, पर धन छोड़ो अधकारी॥
इसी प्रकार 'नेमिचन्द्रिका' (आसकरण) में एक अवांतर कथा के रूप में नेमिनाथ के संसार-त्याग के उपरांत उनके चचेरे भाई कृष्ण और माता शिवदेवी, दोनों में संवाद कराया गया है । शिवदेवी कृष्ण को उपालम्भ देती हैं और कृष्ण उसका युक्तियुक्त उत्तर देते हैं। कवि ने इस छोटी-सी
१. शीलकथा, पृष्ठ १५-१६ ।
वैसांदर ज्यों घृत डारो, तैसें भूपति चित जारो। तुरतहि गर्दभ बुलावायो, ताप असवार करायो । मुख कालो कर दीनो, जाको दीरघ दंड जो दीनो। फिर नगर मांझ फिरवायो, वाके सन्मुख ढोल बजायो। ऐसे काम करै जो कोई, ताकी ऐसी ही गति होई ।
-वही, पृष्ठ १७ ५. वही, पृष्ठ १७ । ४. काकी तुमसे कछु जो नाबनी, मोहि खोरि लगावहु आनि हो ।
काकी वे राजा शिव द्वीप के, तीर्थंकर गोत्र महान हो । शिव देव्या देती उराहनो, राजा समुदविजय की नारि हो । बिन कारण देती उराहनो, राजा समुदविजय की नारि हो ।
-नेमिचन्द्रिका, पृष्ठ १६ ।