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कविवर बनारसीदास
सका उसके पिपासित नत्रों को मेरे ये लालायित नेत्र न देख सके सती साली में तुम्हारी भक्ति का कुछ भी बदला न दे सका मुझे क्षमा करना।
प्रथम पत्नी के निधन के पश्चात कविवर के और भी दो विवाह हुए परन्तु वे अपनी इस उदार-हृदया पत्नी के गुणों को विस्मृण नहीं कर सकें। मित्र लाभ
यो ती सरसता और उदारता के कारण कविवर को कभी मित्रों के स्नेह की कमी नहीं रही परन्तु संपूर्ण मित्र मंडली में आपकी श्री नरोत्तमदास जी से अत्यंत गाढ़ी मित्रता थी। एक क्षण का वियोग भी एक दूसरं को असह्य हो उठता था। कोई मा भी कार्य परम्पर की सम्मति के बिना नहीं होता था। कर में धैर्य बंधानं वाला, व्यापार में पूर्ण सहयोग देने वाला और प्रत्येक प्रकार की सहायता देने वाला यह आपका एक दूसरा हो हृदय था । अपने इस मित्र के विपय में कविवर ने लिखा है।
नवपद ध्यान, गुणवान भगवंत जी को । करत सुजान दिन ज्ञान जगि मानिये ॥ रोम रोम अभिराम, धर्मलीन आठों याम । रूप धन-धाम, काम मूरति वखानिये ॥ तन को न अभिमान, सात खेत देत दान । महिमा न जाके जस को वितान तानिये ॥ महिमा निधान प्रान प्रीतम ' वनारसी' को। चहुँ पद आदि अच्छरन नाम जानिये ॥