SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ | जैन कथामाला (राम-कथा) में बैठे व्यक्ति का उनके जीवन से ऐसा सम्बन्ध है । वह अपनी उत्सुकता न रोक सका । आग्रहपूर्वक बोला--मां, तुम मुझे पूरी बात वताओ। -क्या लाभ होगा, पुत्र ? -- केकसी ने ठण्डी माँस लेकर कहा। -लाभ ? हमारे शत्रुओं का विनाश होगा! -बहुत वलशाली हैं, वे लोग ! -~-मुझमे अधिक नहीं । तुम बताओ तो सही । यदि अपने कुल के अपकारी और शत्रुओं को मृत्यु शैय्या पर नहीं सुला दिया तो अपना पुत्र मत समझना। -कहते-कहते रावण की सुखमुद्रा रौद्र हो गई। केकसी ने समझ लिया कि अब समय आ गया है। पुत्रों को सव कुछ बता देना चाहिए। दीर्थ निश्वास लेकर बोली-तुम नहीं मानते, तोसुनो यह सम्पूर्ण राक्षसद्वीप और लंका नगरी कुल-परम्परा से तुम्हारे पूर्वजों के अधिकार में थी। किन्तु रथनूपुर के राजा इन्द्र ने तुम्हारे पितामह के ज्येष्ठ वन्धु माली को मारकर लंका का राज्य विश्रवा के पुत्र वैश्रवण को दे दिया। तुम्हारे पितामह और पिता यहाँ पाताल लंका में दीनतापूर्वक अपने दिन व्यतीत कर रहे हैं। अपने ही कुलक्रमागत राज्य . पर किसी दूसरे को आसीन देखकर मेरे हृदय में काँटा सा खटकता रहता है लेकिन वलवान शत्रु का कोई करे भी क्या? क्या बिगाड़ सकता है.उसका? हम लोग निर्बल हैं इसीलिए तो __ यहाँ मुंह छिपाये जैसे विल में पड़े हैं। निर्वलता का आरोप सुनकर विभीपण की मुख-मुद्रा भीपण हो __गई, कठोर स्वर में कहने लगा -क्या कह रही हो, माँ ? हम लोग और निर्बल ? बड़े भाई हम लोग का कोई कार में बिल में पर
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy