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वानरवंश की उत्पत्ति | १७ किष्किधा नगरी की एक विशेषता थी-वहाँ चारों ओर वानरों के झुण्ड के झुण्ड धूमते दिखाई देते थे। श्रीकण्ठ ने विचार कियाइतने वानरों को मारना या भगाना तो असम्भव है । साथ ही उत्पीड़न करने से ये उपद्रवी भी हो जायेंगे और हम लोगों को टिकने भी नहीं . देंगे । इसलिए इन्हें अन्न-पानादिक देकर सन्तुष्ट रखा जाय । सन्तुष्ट होने पर ये मित्र हो जायेंगे तथा बाह्य शत्रुओं से नगर-रक्षा करने में सहायक सिद्ध होंगे। ऐसा विचार करके उसने नगर में घोषणा कराई–'राजा श्रीकण्ठ वानरों को अन्न-पानादिक देगा। सभी प्रजाजन भी उनको अन्न-पान आदि देकर सन्तुष्ट करें।"
कहावत है—यथा राजा तथा प्रजा। जव राजा ने वानरों को सन्तुष्ट करना प्रारम्भ कर दिया तो प्रजा भी उनका सत्कार करने लगी । विद्याधरों ने उन वानरों के. चित्र दीवालों पर, छत्र आदि : सभी स्थानों पर अंकित कर दिये । सम्पूर्ण वानरद्वीप में वानरों के चित्र दिखाई देने लगे। ___वानर चिह्नों के कारण यह विद्याधर जाति वानरवंशी के नाम से लोक-प्रसिद्ध हुई।
वानर भी समुचित आदर-सत्कार और यथेष्ट अन्न-पानादिक पाकर सन्तुष्ट हुए और उनके परम सहयोगी मित्र बन गये ।
सत्य है, जिसको सत्कार से सन्तुष्ट रखा जायेगा वही मित्र वन जायेगा-चाहे वह देव हो, मनुष्य हो अथवा पशु ।
राजा श्रीकण्ठ के रानी पद्मा से एक पुत्र हुआ वज्रकण्ठ । वज्र
श्रीकण्ठ वैतादयगिरि के मेघपुर नगर के विद्याधर राजा अतीन्द्र का पुत्र था। अतः वह स्वयं विद्याधर था और उसके अनुचर आदि सभी विद्याधर थे । उन्हीं विद्याधरों ने वानरों के चित्र यत्र-तत्र बनाये थे ।
, -सम्पादक