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८ | जैन कथामाला (राम-कथा) ने अपराध किया, उसे दण्ड मिला, उचित और न्यायपूर्ण ही हुआ यह; किन्तु अन्य निरपराध जीवों की हिंसा करना, उन्हें पीड़ित करना, यह तो घोर अन्याय है।'
सैनिकों और राजा को अन्याय का प्रतिफल चखाने के लिए . उसने एक विशालकाय वानर का रूप बनाया और एक बड़ी शिला उखाड़कर उनकी तरफ फेंकी।
भयभीत होकर राक्षसों ने मधुर वचनों से उस वानर का सत्कार किया और पूछा-हे स्वामी ! आप कौन हैं और हम लोगों को क्यों कष्ट दे रहे हो?
-तुम लोग भी तो निरपराध वानरों को पीड़ित कर रहे हो? -अव नहीं करेंगे। -तो मैं भी तुम्हारा अपकार नहीं करूंगा।
(ख) वाल्मीकि रामायण में राक्षसवंश की उत्पत्ति इस प्रकार वताई गई है
सत्ययुग में ब्रह्माजी. के पुलस्त्य नाम के पुत्र हुए। ये ब्रह्मर्षि पुलस्त्य के नाम से विख्यात हैं । ब्रह्मर्षि पुलस्त्य महागिरि मेरु के निकटवर्ती राजर्षि तृणविन्दु के आश्रम में रहने लगे। वहाँ उनके वेदाभ्यास आदि में विघ्न पड़ने लगा क्योंकि अनेक कन्याएं आ जाती और गायन-वादन आदि करके अपना मनोरंजन करती रहतीं। एक दिन ऋपि पुलस्त्य ने कहा कि 'कल से जो कन्या यहाँ आयेगी वह गभिणी हो जायगी।' दूसरी कन्याएँ तो आई नहीं किन्तु राजपि तृणविन्दु की पुत्री ने पुलस्त्य ऋपि के यह वचन नहीं सुने थे, अतः वह चली आई। मुनि के सामने आते ही वह गभिणी हो गई । राजपि तृणविन्दु ने पुत्री की यह दशा देखी तो उसे पुलस्त्य की सेवा में ही रख दिया । उसका पुत्र हुआ विश्रवा !