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४ ! जैन कथामाला ( राम कथा )
वानर के मर्म-स्थल को वींध गया । मर्मान्तक पीड़ा से वह चीखा और गिरता पड़ता निकट ही कायोत्सर्ग करते हुए एक मुनि के श्री चरणों के समीप जाकर गिरा ।
अचानक ही एक भयभीत व्यक्ति आया और भगवान की वन्दना करके एक ओर बैठ गया । उसके पीछे-पीछे अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए एक अन्य व्यक्ति ने प्रवेश किया । किन्तु भगवान की धर्मसभा में प्रवेश करते ही उसका शत्रु-भाव समाप्त हो गया और वह भी शस्त्रास्त्रों को छोड़कर त्रिभुवन तिलक भगवान की वन्दना करके एक ओर जा बैठा ।
दोनों पुरुषों के प्रति चक्रवर्ती सगर के हृदय में जिज्ञासा जाग्रत हुई | उसने अंजलिवद्ध होकर भगवान से पूछा
-नाथ ! ये दोनों पुरुष कौन हैं ?
प्रभु ने बताया
- सगर ! भयभीत होकर आया हुआ पुरुष मेघवाहन है । यह वैताढ्यगिरि पर निवास करने वाले विद्याधर पूर्णमेघ का पुत्र है और इसके पीछे-पीछे इसे मारने की भावना से आने वाले पुरुष का नाम है सहस्रलोचन । यह भी वहीं के निवासी विद्याधर सुलोचन का पुत्र है | - इनकी शत्रुता का कारण क्या है, विभो ? – सगर
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का
प्रश्न था ।
उत्तर मिला – पूर्वजन्म का वैर भाव !
— चक्री ! पूर्वजन्म में पूर्णमेघ सूर्यपुरनगर में भावन नाम का कोट्याधिपति व्यापारी था और सुलोचन था उसका पुत्र हरिदास ।
एक वार भावन अपने पुत्र हरिदास को घर पर ही छोड़कर धनोपार्जन हेतु परदेश- चला गया । वह वारह वर्ष तक देश-देशान्तर भ्रमण करता रहा और बहुत-सा द्रव्य कमाकर घर वापिस लौटा ।