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— सीता, सुग्रीव आदि के पूर्व भव | ४७३ करना व्यर्थ है । अवश्य ही श्रमण संयम की असि धारा पर सफलतापूर्वक चलकर यह अपना उद्धार करेगी ?'
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अपने पुत्र स्वर्णचूल और राजकुमार चन्द्रचूल को मन्त्री वनगिरि पर्वत, पर ले गया। पर्वत शिखर पर उसे महावेल नाम के गणधर के दर्शन हुए । मन्त्री ने उनकी वन्दना करके वहाँ अपने आने का कारण भी निवेदन कर दिया । गणधरदेव मन:पर्यव ज्ञानी थे। उन्होंने बताया-'ये दोनों ही तीसरे भव में वलभद्र और वासुदेव होने वाले हैं।'
यह सुनकर मन्त्री प्रसन्न हुआ और उसने दोनों कुमारों को धर्म श्रवण कराकर व्रत ग्रहण करा दिये।
राजा के पास लौटकर मन्त्री ने बताया कि वह दोनों पुत्रों को गिरिगुफा में रहने वाले सिंह के समान निर्भय व्यक्ति को सौंप आया है। - राजा को यह सुनकर अपने इकलौते पुत्र का दुःख सालने लगा । मन्त्री के शब्दों में छिपे हुए कुछ गूढार्थ की भी शंका हुई। उसने पुत्र-वियोग से विह्वल होकर पूछा-मन्त्री ! जो सत्य हो, वही मुझे बताओ।
मन्त्री ने राजा को मत्य वात बता दी।
राजा ने मन्त्री की वहुत प्रशंसा की । 'कुपुत्र के समान ही यह सांसारिक सुख-मोग भी निन्दा के कारण है।' यह विचारकर वह गणधर महाबल के चरणों में जाकर दीक्षित हो गया। उसने पुत्र से अपनी कठोरता की क्षमा मांगी।
तदनन्तर राजा प्रजापति ने केवलनान प्राप्त किया और आयु पूर्ण कर सिद्धशिला में जा विराजे ।
मुनि चन्द्रचूल और स्वर्णचूल एक दिन खंगपुर नगर के बाहर मातापन योग धारण कर विराजमान थे। उसी समय वलभद्र सुप्रभ और पुरुपोत्तम वासुदेव को उन्होंने ऋद्धि और समृद्धि सहित