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४४० | जैन कामाला (राम-कथा)
-स्वामी ! मैं देवी सीता को सिंहनिनादक वन में छोड़ आया।
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मानो तन्द्रा टूटी राम की, पूछने लगे-कहाँ ? -सिंहनिनादक बन में। -कुछ कहा, देवी ने ? -हाँ, आपके लिए, एक सन्देश दिया है। - कहो।
वृतान्तवदन बताने लगा- .
-देवी ने चलते समय कहा था-एक पक्ष की बात सुनकर ही निर्णय कर देना कौन सी नीति है ? श्रीराम जैसे विवेकी व्यक्ति ने भी ऐसा न्याय कर दिया यह मेरे भाग्य का ही दोष है। वे तो सदा ही निर्दोष हैं।
-और कुछ भी कहा ?
-हाँ स्वामी ! उन्होंने कहा था 'जिस प्रकार लोकापवाद के भय से मेरा त्याग कर दिया है उसी प्रकार मिथ्या दृष्टियों के कहने से अर्हन्त प्रणीत धर्म का त्याग न कर दें।'
अन्तिम शब्दों ने राम पर वज्र-प्रहार सा कर दिया। वे मूचिन्त होकर गिर गये । तत्काल लक्ष्मण ने सुगन्धित जल आदि से सचेत करके विनती की
-भैया ! महासती को आप स्वयं जाकर ले आइये । किन्तु राम मौन हो गये। उनके हृदय का दुःख मुख पर गाम्भीर्य वनकर छा गया।
व्यक्ति की परख वियोग होने पर ही होती है। सीता के चले नाने से राजमहल सूना हो गया । अयोध्या के नर-नारी जो कल तक