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४.१६ / जैन कथामाला (राम-कथा) लिया। बन्धनमुक्त होकर श्रीधर ने श्रामणी दीक्षा ग्रहण की और कालधर्म प्राप्तकर तपस्या के प्रभाव से देवगति पाई।
देवगति से च्यवकर श्रीधर का जीव मथुरा के राजा चन्द्रप्रभ । की रानी कंचनप्रभा की कुक्षि में अवतरित हुआ। जन्म होने पर उसका नाम अचल रखा गया । अचल अपने पिता चन्द्रप्रभ को विशेष प्रिय था । अचल के भानुप्रभ आदि आठ सौतेले बड़े भाई थे। भाइयों ने सोचा-'यद्यपि अचल हम सबसे छोटा है किन्तु पिताजी इसे ही अधिक प्यार करते हैं। राज्य इसी को मिलेगा और हम सब देखते ही रह जायेंगे । इसलिए इसे मार ही डालना चाहिए।'
भाइयों की यह दुर्मन्त्रणा मन्त्री से छिपी न रह सकी । उसने अचल को सावधान कर दिया । अचल वहाँ से भाग निकला और वन में भटकने लगा । भटकते-भटकते उसके पाँव में एक तीक्ष्ण काँटा चुभ गया । पीड़ा से बिलबिला उठा वह और जोर-जोर से आक्रन्दन करने लगा। .
श्रावस्ती नगरी का निवासी अंक नाम का एक पुरुष सिर पर ईधन (जलाने की लकड़ी) का गट्ठा लिये हुए वहाँ आ निकला। अचल के विलाप को सुनकर सहानुभूतिपूर्वक उसने उसके पैर का काँटा निकाल दिया। अचल की पीड़ा मिट गई।
उसने पूछा-मित्र तुम कौन हो और इस निर्जन वन में क्यों रहते हो?
उस पुरुप ने उत्तर दिया-मेरा नाम अंक है। मुझे पिता ने घर से निकाल दिया है। इस कारण इस निर्जन वन में जीवन यापन कर रहा हूँ।
अचल ने उससे कहा-मित्र तुमने मुझ पर उपकार किया है । जब भी सुनो कि अचल मथुरा नगरी का राजा बन गया है तो आ जाना।