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शत्रुघ्न के पूर्वभव | ४१३ राम समझ गये कि शत्रुघ्न को समझाना निरर्थक है। वह मथुरा अवश्य ही जायगा । भ्रातस्नेह वश उन्होंने सावधान किया
-जैसी तुम्हारी इच्छा ! किन्तु जव मधु राजा त्रिशूल रहित और प्रमाद में पड़ा हो तभी युद्ध करना।
शत्रुघ्न ने राम की इच्छा शिर झुकाकर स्वीकार कर ली।
श्रीराम ने अक्षय वाण वाले दो तरकस दिये और कृतान्तवदन सेनापति को साथ जाने का आदेश । लक्ष्मण ने अग्निमुख वाण और अपना अर्णवावर्त धनुष दिया। बड़ी सेना लेकर शत्रुघ्न मथुरा की ओर चल दिये । निरन्तर चलते हुए वे मथुरा के समीप पहुंचे और नदी किनारे रुक गये।
नगर-प्रवेश से पहले उन्होंने अपने चार गुप्तचर नगर के समाचार लाने के लिए भेजे । गुप्तचरों ने लौट कर बताया
-इस समय राजा मधु अपनी रानी जयन्ती के साथ नगर की पूर्व दिशा में स्थित कुबेरोद्यान में क्रीड़ा रत है। उसका दिव्य त्रिशूल शस्त्रागार में रखा है।
अवसर अनुकूल था। शत्रुघ्न ने रात्रि के समय उद्यान के पीछे से मथुरा में प्रवेश किया और शस्त्रागार पर अधिकार कर लिया। मधु का पुत्र लवण युद्ध करने आया तो उसे क्षणमात्र में मार गिराया। मधु शत्रुघ्न के साथ युद्ध करने लगा। जव सामान्य शस्त्रों से मधु पराजित न हो सका तो शत्रुघ्न ने अर्णवावर्त धनुप की सहायता से अग्निमुख वाण छोड़ा। उस वाण के आघात को मधु न सह सका और आहत होकर गिर गया। उस समय मधु का विचार प्रवाह वदला । वह सोचने लगा-'अरे त्रिनूल के अभिमान में मैंने धर्म कार्य . नहीं किया । अव शत्रुघ्न ने मुझे मार डाला तो त्रिशूल किस काम आया। सच है-मृत्यु से कोई नहीं बचा सकता । केवल धर्म ही लोक परलोक में सहायक होता है।' इस विचारधारा के अनुसार उसने