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________________ लंका में प्रवेश | ३३१ सीता ने चिन्तित स्वर में कहा -अरे वत्स ! तुम शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ । यदि राक्षसों ने देख लिया तो गजव हो जायेगा। अपने लिए वत्स का सम्वोधन सुनकर हर्ष-विभोर हो गये हनुमान ! उत्साहपूर्वक वोले -माता ! आपका मुझ पर पुत्रवत् स्नेह है इसीलिए चिन्तित हो रही हैं। किन्तु मैं भी श्रीराम का दूत हैं। यह रावण मेरे सम्मुख है ही क्या ? कहो तो सेना सहित इसे मारकर आपको कन्धे पर विठाकर ले जाऊँ और श्रीराम को सौंप दूं। मुस्कराकर सीता ने कहा -जानती हूँ वत्स ! तुम परम पराक्रमी हो। तुम्हारे लिए सव कुछ सम्भव है । किन्तु प्रभु की आज्ञा का ही पालन करो। -जाऊँगा तो अवश्य ! परन्तु अपना पराक्रम तो इन्हें दिखा जाऊँ। यह रावण अपने दर्प में किसी को वीर ही नहीं मानता। रामदूत का थोड़ा-सा बल तो देख ले। हनुमान ने हठपूर्वक कहा । - सती समझ गई कि हनुमान मानने वाले नहीं है। रोकना व्यर्थ होगा । 'जैसी तुम्हारी इच्छा' कहकर मौन हो गई। -त्रिषष्टि शलाका ७७ विशेष-वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण ने सीताजी को प्रमदा वन की अशोकवाटिका में रखा था। सुन्दरकाण्ड]
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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