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छा गए । सीता के प्रत्यागमन से राम को तनिक भी प्रसन्नता न हुई । वास्तविकता का उन्हें खयाल आया कि अब सीता का क्या किया जाय ? वे अपने मनोभावों का विश्लेषण करने लगे । सीता को स्वीकार करना उनको अभीप्ट नहीं था । अपने गौरव पर की गई चोट से वे तिलमिला उठे। रावण ने सीता का भील भंग किया होगा इसी सन्देहात्मक तर्क के कारण वे सीता को स्वीकार करने से इन्कार करते हैं । सीता के शील के प्रति उनके मन में सन्देह था ।'
(४) वालिवध के प्रसंग में भी वैदिक परम्परा द्वारा वर्णित उसे छिपकर मारना श्रीराम के चरित्र को ऊँचा नहीं उठाता । जैन परम्परा में यह दोष नहीं है । यहाँ श्रीराम के द्वारा वालि का वध नहीं कराया गया, वरन् साहसगति विद्याधर का, जो सुग्रीव का रूप बनाकर उसके राज्य और अन्तःपुर पर छलपूर्वक अधिकार कर लेता है, वध श्रीराम द्वारा हुआ है और वह भी सामने से, छिपकर नहीं।
(५) लक्ष्मण के अन्त का प्रसंग भी वैदिक परम्परा में दूसरे ढंग से चित्रित है। वहाँ श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण को पहरे पर बिठाकर कालपुरुष से गुप्त वार्ता करने लगते हैं । तभी दुर्वासा ऋषि आ जाते हैं और राम से तत्काल ही भेंट करने का आग्रह करते हैं । लक्ष्मण द्वारा थोड़ी देर प्रतीक्षा करने की अनुनय पर वे कुटुम्ब नाश का शाप देने को उद्यत हो जाते हैं । विवश लक्ष्मण उन्हें अन्दर चला जाने देते हैं। यही उनके लिए अभिशाप हो जाता है । राजाज्ञा (राम की आज्ञा) भंग के परिणामस्वरूप वे सरयू में जाकर देह-विसर्जन कर देते हैं । किन्तु जैन परम्परा में इस घटना का उल्लेख नहीं है । वहाँ लक्ष्मण की मृत्यु राम की मृत्यु की झूठी खबर सुनकर दिखाई गई है
और राम भ्रातृमोह से विह्वल हो जाते हैं। जीवन भर के प्रगाढ़ प्रेम को देखते हुए राम की विह्वलता मोर कातरता स्वाभाविक ही लगती है;
१ अरविन्दकुमार : ए स्टडी इन द एथिक्स आफ दि वेनिशमेंट आफ सीता,
पृष्ठ १६ --डा. शान्तिलाल खेमचन्द शाह की पुस्तक 'राम-कथा साहित्य : एक अनुशीलन' में उद्धृत । .