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अवतारवाद का अभिप्राय है दूसरों की हित कामना के लिए ऊपर से नीचे भाना, निष्कलंक होकर भी कलंक-पंक को ग्रहण करना जवकि उत्तारवाद का अभिप्राय है शुद्धता की ओर बढ़ना, ऊँचे चढ़ना और परमशुद्ध आत्मस्वरूप में लीन हो जाना।
वैदिक परम्परा के अनुसार राम जन्म से पहले भी भगवान थे, जीवन भर भगवान रहे और अन्त में सदेह ही अपने धाम पहुंचे तव भी भगवान थे । जन परम्परा भी उन्हें भगवान मानती है, किन्तु तपश्चरण करके कर्म-निर्जरा के बाद ।
अवतारवाद के अनुसार वे भगवान थे और उत्तारवाद के अनुसार वे भगवान बने । बस इस 'थे' और 'बने' का अन्तर ही वैदिक और जैन परम्परा का सैद्धान्तिक अन्तर है। जैन रामायण में भी राम उतने ही पूज्य हैं उतने ही आदर योग्य हैं जितने वैदिक रामायण में वरन् उससे भी कुछ अधिक ही। . ,
, . .. , कृपावाद बनाम पुरुषार्थवाद-वैदिक परम्परा की दूसरी भित्ति है कृपावाद । यह कृपावाद वैदिक ही नहीं संसार के सभी धर्मों की जड़ है-चाहे वह मुस्लिम हो अथवा ईसाई, अफ्रीका के जंगली लोगों का धर्म हो अथवा साइवेरिया के वर्फीले इलाकों का। केवल जैन श्रमण संस्कृति ही इसका अपवाद है। कृपावाद का अर्थ है भगवान अथवा इष्टदेव की कृपा । भक्त अथवा संसार के सभी प्राणी भगवान की कृपा पर आश्रित होते हैं । यदि उसकी कृपा हो जाये तो ससार से मुक्ति हो जाय अन्यथा संसार के कष्ट तो हैं ही। वह अर्थात् भगवान चाहे तो क्षणमात्र में घोर पापी को भी अपनी कृपा से क्षमा कर देते हैं। लाख पाप करने पर भी प्राणी यदि किसी प्रकार भगवत् कृपा प्राप्त करने में सफल हो जाय तो वह क्षणमात्र में मुक्त हो सकता है।
कुम्भकर्ण आदि मुक्त हुए दोनों ही परम्पराओं में । वैदिक परम्परा के अनुसार श्री राम ने मार कर उनका कल्याण कर दिया और जैन परम्परा